Book Title: Arsh Vishva
Author(s): Priyam
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 135
________________ T अभी तक जिन का आचारसंहिता का अध्ययन किसी हेतु से न हो सका हो, वे सहज आदर से मार्ग में भी वंदना कर लेते है । किन्तु यह वंदना प्रमाण नहीं है, अतः उससे कोई आचार की प्रतिष्ठा संभवित नहीं है । समग्र विश्व के जीवो पर प्रभु की अपरंपार करुणा से प्रभु ने जो आचारमार्ग दिखाया वह एकान्तहितकारक है । जिनशासन में कोई आचार ऐसा नहीं, जो एक भी जीव के कर्मबंध का हेतु हो, प्रभु तो समग्र विश्वको सर्व दुःखो से मुक्त करना चाहते है, अतः उनकी आज्ञा सर्वकल्याणानुकूल ही होती है । इसका अन्य उदाहरण इसी विषय में प्रस्तुत करता हूँ कि साधुजी साध्वीजी को बृहद्वंदन (जो खमासमणद्वय, इच्छकार इत्यादिपूर्वक किया जाता है) नहीं करते । यतः वह क्रिया देख कर भी धर्म का उपहास हो सकता है, कि संसार की तरह यहाँ भी स्त्रीराज्य । अतः उपहासकर्ता परम पावन इस धर्म की अवगणना करके अनंत संसार दुःख को निश्चित न करे, इस लिये परम कारुणिक जिनेश्वर भगवंतो ने यह आचारमार्ग प्रतिपादित किया है | एक बात याद रहे, कि यह बृहद् वन्दन न करते हुए भी साधुजी वंदना तो अवश्य करते है, एवं साध्वीगण प्रति उनके हृदय में तुल्य सम्मान एवं आदर की भावना अवश्य होती है। शंका - क्यां ऐसा नही हो सकता ? कि यह आचारमार्ग प्रभु द्वारा प्रतिपादित न हो, किन्तु आधुनिक अहंकार का उत्पादन हो । बिल्कुल नहीं, यतः कल्पसूत्र के कृतिकर्मकल्प की टीका में समाधान लिखा है । - साध्वीभिश्च चिरदीक्षिताभिरपि नवदीक्षितोऽपि साधुरेव वन्द्यः । चिरदीक्षित साध्वीजी भगवंतो का भी कर्त्तव्य है, कि वे नवदीक्षित साधुजी को बृहद्वन्दना करे । शंका क्या इसे पक्षपात नहीं कह सकते ? समाधान अंतर में आदर एवं सम्मान की पूर्णता, शास्त्राज्ञा की निष्ठा, एवं सर्वजीवो के हित की कामना जिस आचार में रही है, उसे पक्षपात कहना, यह तीर्थंकरो की आशातना है, अतः ऐसी शंका स्वप्न में भी नहीं करनी चाहिये । - - शंका क्यां ऐसा नहीं हो सकता की यह तीर्थंकर की आज्ञा न हो कर के टीकाकार की ही कल्पना हो ? समाधान 'टीका' नूतन सिद्धान्त रचना नहीं होती, किन्तु पूर्व शास्त्रो के - १३५

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