Book Title: Arsh Vishva
Author(s): Priyam
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 141
________________ होता है, क्यां कि वह तो अपना अज्ञान शायद दूर कर देगा, मगर जहाँ जहाँ उसने अज्ञान फैलाया है, उसका क्यों ? हमारे एक महात्मा को किसीने प्रवचन का आग्रह किया, तो वे रो पडे। उन्होंने कहा, कि यदि मुझ से कुछ भी उत्सूत्र ( आगम आदि शास्त्र विरुद्ध) बोला गया, तो मेरा संसार कितना बढ जायेगा !' इसे कहते हे पापभीरुता, सरलता एवं मुमुक्षुता । प्रवचन एवं लेखन यह दोनों अहंकार क्षेत्र नहीं, किन्तु दायित्वक्षेत्र है । पर्याप्त शास्त्राभ्यास के बिना जिसका निर्वाह संभव नहीं । बहुश्रुत आत्मा प्रभु की आज्ञा के प्रति निष्ठावान होकर इन्हीं माध्यमो से स्व और पर का कल्याण करती है । और अज्ञ अल्पज्ञ आत्मा मतिकल्पना का आधार लेकर इन्हीं माध्यमो से स्व और पर का अहित करती है । अतः यदि सचमुच स्व- पर कल्याण की भावना हो, तो पहले सद्गुरु की शरण में दीर्घकाल तक शास्त्राभ्यास करना चाहिये, और जब तक सद्गुरु की अनुज्ञा न मिले तब तक उपदेश / लेखन दोनों विद्या से मौन ग्रहण करना चाहिये । शंका - जैन दृष्टि से स्त्री सम्मान को जान कर मेरा अंतर अधिक आदरपूर्ण बना है । मैं उन के लिये कुछ करना चाहता हूँ, तो मैं क्यों कर सकता हूँ ? T समाधान समाज मैं सद्गुणो का साम्राज्य व्याप्त हो ऐसा प्रयास व सम्यक् शास्त्रज्ञान का प्रसार हो ऐसा प्रयास सद्गुरु के मार्गदर्शनानुसार करते रहना चाहिये । इस से समाज के सर्व अंग लाभान्वित होते है, एवं नारीविश्व भी इसी विधा से पूर्ण लाभान्वित होगा । हर दोष एवं हर दुःख का मूल अज्ञान है, अज्ञान का निवारण ही दोषो और दुःखो का निवारण करता है । पहले अपने भीतर में उजाला करो और फिर विश्व में उजाला करो। स्व-पर कल्याण का यही एक मार्ग है । परम तारक जिनाज्ञा विरुद्ध लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम् । - १४१

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