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अपने आप बंद हो जायेगी, कन्या के प्रति यदि शासको का सचमुच वात्सल्य उभर रहा है, तो उसे नाबूद करने का सफल उपाय यही हो सकता है।
हमारी बात यह है - सच्चा सम्मान है गुणदृष्टि से किया हुआ सम्मान । और जैसे कि हमने देखा, जैन शास्त्रो में और जैन परंपरा में यह सम्मान की एक अनूठी काष्ठा दृष्टिगोचर हो रही है।
शंका - हमने सुना है कि अहंकारी साधुओ की परंपराने श्रमणीओ को अपने अधिकारो से वंचित कर दिया है वे उनके द्वारा वंदन करवाते तो है, मगर खुद कभी इन्हें वंदन नहीं करते, तो इसके बारे में आपका क्यों कहना है ?
समाधान - यह बात किसी ने अज्ञानवश कही हो, ऐसा ज्ञात होता है । यतः यह बात शास्त्र और परंपरा दोनों रीति से असत्य है । श्रमण भगवंत चाहे पंन्यास, उपाध्याय, आचार्य या गच्छाधिपति भी क्यों न हो, वे लघुतम श्रमणी को भी 'मत्थएण वंदामि' कह कर अवश्य वंदन करते है। हमारे गच्छाधिपति श्रीजयघोषसूरीश्वरजी महाराजा का भी यह स्वभाव है, उन के पास साध्वीजी भगवंत का आगमन होने पर तत्क्षण प्राकृतिक रूप से उनके हाथ वंदना करते हुए जुड़ जाते है। इस स्थिति में उपरोक्त विधान न केवल अज्ञान है, किन्तु सुविहित श्रमण परंपरा की आशातना का पाप भी । अतः ऐसे विधानकर्ता पर भावकरुणा करते हुए उन्हें सत्य स
शंका - एक बार मैंने रास्ते में देखा कि साधुजी ने सामने से आ रहे साध्वीजी को वंदना नहीं की।
समाधान - आपने साध्वीजी पर भी ध्यान दिया होता, तो आप को पता चलता कि उन्होंने भी साधुजी को वंदना नहीं करी है। यह एक शास्त्राज्ञा है, कि मार्ग पर श्रमण-श्रमणी परस्पर वंदना न करे । अन्यथा अज्ञानी लोग को उनके असत् संबंध की शंका हो सकती है । ऐसी शंका करके वह अज्ञानी श्रमण-आशातना के पाप से दुःखी न हो, इस लिये करुणा कर के प्रभु ने ऐसी आचाररीति का प्ररूपण किया है। बाकी, गुणदृष्टि से अंतर में परस्पर का आदर-सम्मान अवश्य होता है ।
शंका - एक बार मैंने ऐसा भी देखा कि साध्वीजी ने तो मार्ग पर साधुजी को वंदना की । किन्तु साधुजी ने उन्हें वंदना नहीं की
समाधान - शायद आपको इससे विपरीत दृश्य भी सुलभ हो जायेगा किन्तु उसका हेतु आज्ञाभंग का आशय या आचारपरिवर्तन नहीं है । जो नूतनदीक्षित हो, या
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