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अतः सर्व साधु सहित समस्त चतुर्विध संघ एवं अन्य नर-नारीदेव-देवीयों उन्हें वंदन करते है। इस में साधुजी का बृहद् वन्दन भी अनंतकाल में कादाचित्क घटित आश्चर्य में संलग्न है, अतः न वो चर्चास्पद हो सकती है, न तो सामान्य सिद्धान्त को बाध्य कर सकती है। यह घटना जनमानस में पूर्वोक्त असद्भाव का सृजन भी नहीं कर सकती है। क्यों कि तीर्थंकर के परम ऐश्वर्य एवं अतिशयो के प्रभाव से ऐसी सम्भावना भी नही रहती।
शंका - तो क्यां हम मान सकते है कि श्रमण परंपरा में साध्वीजी के प्रति पूर्ण आदर एवं सम्मान भाव रहा है ।
समाधान - यदि आप कदाग्रहमुक्त मन से सोचे, तो इस के ठोस प्रमाण मैं प्रस्तुत कर चुका हूँ । तथापि आप की जिज्ञासा हो, तो अन्य प्रमाण भी प्रस्तुत कर सकता हूँ। १) अपापाबृहत्कल्प एवं दुसमकालसमणसंघथयं-अवचूरि में उल्लेख है. कि
आचार्य श्री कालकसरिजी ने साध्वीजी की रक्षा करने के लिये अत्यंत परिश्रम किया । यहाँ तक की अत्याचारी राजा गर्दभिल्ल को राज्यभ्रष्ट करवाया एवं
साध्वीजी को मुक्ति दिलायी । विद्वज्जगत में यह इतिहास सुप्रसिद्ध है । (२) कल्पसूत्र आदि जो जो शास्त्र में इतिहास - सुविहित परंपरा का उल्लेख है, उन
में साध्वीजीओ का भी गौरवपूर्ण उल्लेख किया गया है। (३) अनेकानेक विद्वान आचार्य भगवंतों ने एवं श्रमणो ने महासतीयों एवं साध्वीजीयों
के विस्तृत चरित्रग्रंथो का निर्माण किया है। जिन में उन के शील आदि गुणो की भूरि भूरि अनुमोदना की गई है । आप कोइ भी विस्तृत ज्ञानभंडार की
मुलाकात लेकर ऐसे अनेकानेक ग्रंथो के दर्शन कर सकते है। (४) सर्व गच्छाधिपति आचार्यों से लेकर प्रत्येक श्रमण सहित समस्त चतुर्विध संघ
प्रातः प्रतिक्रमण में भरहेसर सूत्र में सुलसाजी, चन्दनबालाजी इत्यादि महासती, महासाध्वीओ का परम आदर से नामग्रहण - स्मरण करते है । अंतकृतदशा नाम के आगम सूत्र में श्रीकृष्णमहाराजा की ८ रानीयाँ, श्रेणिक राजा की २६ रानीयाँ आदि दीक्षा लेकर जो अद्भुत साधना करती है, एवं उसी भव के अंत में मोक्ष प्राप्त करते है, उस का रोमहर्षक वर्णन है । कालीदेवी आदि रानीयाँ श्रमणी बनकर जो दुष्कर तपश्चर्या करती है, उस का प्रतिपादन पढकर
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