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अनुसरण से एवं सुधर्मास्वामीजी से उद्भूत सद्गुरु की परम पावन परंपरा से प्राप्त अर्थ की सुगम बोधदायक कृति होती है । टीका यानि वृत्ति, और वह मूल सूत्र का ही एक अंग है । अतः उस का भी मूल सूत्र जितना ही माहात्म्य है । उस का अनादर मूल सूत्र के अनादर तुल्य है अतः आगम आशातना के महापापस्वरूप है।
शंका - यह बात क्या आप अपनी विधा से कहते है, या उसका कोइ प्राचीन प्रमाण भी है ?
समाधान - अवश्य है। महायोगी श्रीआनंदघनजी महाराज ने स्तवनचोवीशी में श्रीनमिनाथ प्रभु के स्तवन में कहा है -
चूर्णि भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परंपर अनुभव रे ।
समयपुरुषना अंग कह्या ए, जे छेदे ते दुर्भव्य रे ॥ चूर्णि (प्राकृत टीका), भाष्य (सूत्र + नियुक्ति विवेचक), सूत्र (मूलपाठ), नियुक्ति (सूत्र का विस्तृत विवेचन), वृत्ति (संस्कृत टीका), परंपरा (सद्गुरु की परम्परा से प्राप्त अर्थ, अनुभव (गीतार्थ महापुरुषो का आगमानुसारी संवेदन) - यह सब आगमपुरुष के अंग है । जो उनकी अवज्ञा करता है वह दुर्भव्य है, अर्थात् वह संसार में दीर्घ काल तक भ्रमण करता हुआ दुःखी होता है।
शंका - तो क्या कल्पसूत्र-टीकाकार ने भी पूर्व महाशास्त्रो का अनुसरण कर के इस अर्थ का लेखन किया है ?
समाधान - अवश्य, यदि आप किसी बहुश्रुत के पावन सान्निध्य को पा सको, तो वे आप को बृहत्कल्प आदि सूत्रो के अनेकानेक प्रमाण दे सकते है। यहाँ अधिक विस्तार न हो, इस लिये प्रस्तुत नहीं करता ।
शंका - क्यां भगवान महावीरस्वामिजी के समय में भी यही आचार प्रसिद्ध था?
समाधान - हाँ, सिद्धान्त अर्थरूप से शाश्वत है। केवल श्रीमहावीरस्वामिजी के काल में ही नहीं, किन्तु चौबीस तीर्थंकरो के काल में भी यही आचार प्रवृत्तिमान था, एवं आज भी महाविदेहक्षेत्र में श्रीसीमंधरस्वामिजी आदि विहरमान जिनेश्वरो के शासन में यही आचार प्रवृत्तिमान है । सिद्धान्त त्रैकालिक है, और उस के रहस्य, तात्पर्य एवं उस में गर्भित सर्वकल्याणभावना भी त्रैकालिक है।
शंका - क्या आप कोई ऐसा उदाहरण दे सकते है, कि जिस में चिरदीक्षित साध्वीजी ने नवदीक्षित साधुजी को वंदन किया हो, वह भी भगवान श्रीमहावीरस्वामिजी
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