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दुनिया दुःखी है, यतः उसे बिजली के चमकारे से दिवाली मनानी है ।
आचारांगसूत्र में कहा है- भेउरेसु ण रज्जेज्जा - जो स्थिर नहीं, उस से स्नेह करने में कोई लाभ नहीं है । दुनिया दुःखी है, यतः उसे बिजली के चमकारे से दिवाली मनानी है, जो
संभव ही नहीं है । अनादि की इस यात्रा में ५ - २५-५० साल के संबंधो का अस्तित्व क्यां ? वे जितने है उससे अधिक तो वे 'नहीं है' । समजदारी इसमें ही है, कि मान ले कि वे नहीं है...असत्यत्वेन भानं तु... बस... फिर सारे राग-द्वेष भी समाप्त और दुःखमय संसार भी समाप्त...संसारस्य निवर्तकम् ।
समंदर का तूफान इन्द्रजाल है, इस समज से राजा शांत हो गये । संसार इन्द्रजाल है, यह समज आ जाये, तो आत्मा भी शांत हो जाये... पूर्णतया शान्त... जिसे न धनसंचय करना है...न भोग-उपभोग करना है...न भाग-दौड़ करनी है... न कोई चिन्ता है ... न कोई भय है... न कोई शोक है... ना ही कोई खिटपिट है । परम शान्ति की यह दशा तो ही 'मोक्ष' है । अब आत्मोपनिषद् में किसी भी आशंका का अवकाश नहीं है असत्यत्वेन भानं तु संसारस्य निवर्तकम् ।
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अज्ञानी को मृगजल में भी जल दिखाई देता है । ज्ञानी को जल में भी मृगजल दिखाई देता है ।
जिस चीज के लिये अज्ञानी खिटपिट करता है, वह चीज ज्ञानी की समज के अनुसार है ही नहीं, तो वह किस के लिये खिटपिट करे ? अज्ञानी को मृगजल में भी जल दिखाई देता है । ज्ञानी को जल में भी मृगजल दिखाई देता है ।
दौड़ता है वह, जिसे जल दिखता है । जिसे स्पष्टतया मृगजल ही दिखता है, वह क्यों दौड़े ? वह तो केवल शान्त रहता है । इन्द्रजालमिदं सर्वं यथा मरुमरीचिका
इस जीवन की सफलता भाग-दौड़ करने में नहीं है, शान्त होने में है । विद्वानने जो शब्द राजा को कहे थे, वही शब्द उपनिषद् के महर्षि हमें कह रहे है, "रुको, तुम क्या कर हो ?" जरा रुकें, सुनें व समजे... फिर शांति की वरमाला हमारे गले में होगी ।
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