Book Title: Arsh Vishva
Author(s): Priyam
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 125
________________ नाम है तेरा तारणहारा अनादि काल से मोहित है जीव अपने नाम पर । यही मोह यदि देव-गुरु के नाम पर आ जाये, तो उसे प्रशस्त मोह कह सकते है । यह शुभारंभ है मोक्षयात्रा का । धन्य है वे,जो कलम का परीक्षण करते समय सहजतया देव-गुरु का नाम लिखते है । उतनी ही सहजता से, कि जितनी सहजता से अन्य जीव अपना नाम लिखते है। अस्तित्व के विसर्जन की यह साधना है। जहां 'मैं' लापता हैं । कही दिखता ही नहीं । जो हैं ही नहीं, वह कैसे दिख सकता है ? जो खुद को भी नज़र नहीं आ रहा, वह दुसरों को कैसे दिख सकता है ? बस, इसी शून्य में साकार होती है आगमवाणी तस्सन्नी तद्दिट्ठी तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे सच्चा साधक मानो ‘होता' ही नहीं हैं । होते है केवल गुरु । साधक गुरु के इशारे पर चले, इस में कुछ कमी की प्रतीति होती है। 'गुरु ही चल रहे है' यह है साधना की पूर्णता । द्वादशार नयचक्र के कालवाद के परिप्रेक्ष्य में कहे तो कालः पचति भूतानि - यहा साशंकता है । काल एव पच्यते - यहा निश्चितता है । १२५

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