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गृहमित्याहुः, गृहिणी गृहमुच्यते । वर को 'घर' नहीं कहते, गृहिणी को घर कहते है। अग्रिम सूत्र है -
न विओयइ अप्पणा सद्धिं ॥२८५॥ पत्नी को अपने से वियुक्त न करे । कोई ऐसा प्रयोजन न रखे, जिससे अधिक समय घर से बाहर रहना पडे । यतः पतिवियोग का दुःख असह्य होता है, जिसकी असर पत्नी की प्रसन्नता एवं स्वास्थ्य पर पडती है । अतः ऐसा न करे ।
अवमाणं न पयंसइ ॥२८६॥ नारी का अपमान न करे । कभी उससे कुछ भूल भी हो, तो शान्ति से शिखाये। उसे गुस्सा आये तो अनुकूल आचरण से उसे शान्त करे । यही बात कहते है -
खलिए सिक्खेइ कुवियमणुणेइ ॥२८६॥ एक यदि आग है, तो अन्य का कर्तव्य है कि वह पानी बने । स्वयं कुपित होने से तो वह आग ज्यादा भडकेगी । जिस में पूरे घर की शान्ति भस्मीभूत हो जायेगी ।
रोगाइसु नोविक्खइ ॥२८८॥ पत्नी रोग आदि से पीडित हो, तब उसकी उपेक्षा न करे, किन्तु प्रयासपूर्वक उस के आरोग्य का प्रबन्ध करे ।
सुसहाओ होइ धम्मकज्जेसु ॥२८८॥ पत्नी के धर्मकार्यो में उसकी अच्छी तरह सहाय करे, यतः वह धर्म की आराधना से हर सुख पा सके । इस तरह हम देख सकते है कि नारीगौरव वह कोइ आधुनिक क्रान्ति नहीं है। हमारे प्राचीन शास्त्रो में यह बात सूक्ष्मतया प्रतिपादित है, जिसका आचरण शिष्टजनों में प्राचीन काल से होता आया है।
शंका - यदि नारी सम्मानपात्र है, तो उसे घर की चार दीवारो में नियंत्रित क्यों किया जाता है ? इस जुलम को शास्त्र भी सम्मत क्यों करते है ? शास्त्र में यह भी तो कहा है कि
नाड्य-पिच्छणयाइसु जणसंमद्देसु वारेइ ॥२८४॥ समाधान - पत्नी को नाटक, खेल, लोगो की भीड में जाने से रोकें । एक माँ यदि अपने बेटे को किसी नुकशानकारक स्थान में जाने रोकती है, तो उसे जुलम नहीं कहा जाता । ठीक उसी तरह इस बात में भी समजना चाहिए । जो शास्त्र नारी का
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