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नाम और रूप यही है संसार । सिद्धदशा में नाम और रूप नहीं, तो संसार भी नहीं । सच्ची साधना वही है जो नामाध्यास व रूपाध्यास (देहाध्यास) का क्षय करे । इन दोनों की पकड से आत्मा को मुक्त करे, वह मोक्षयात्रा
और इन दोनों की पकड को मजबूत करे
वह संसारयात्रा...नामरूपे हि संसार:.... अपने नाम का मोह छूट जाये
और वह मोह देव-गुरु के नाम पर आ जाये, यह अनादि की विपरीत यात्रा का एक महादुर्लभ मोड है । 'मने व्हालुं लागे प्रभु तारुं नाम' यह वचन अब वर्तन बनता है। होठों पर और दिल में अब देव-गुरु का नाम स्थायी होता है । पहले जो शायद जीवन का एक हिस्सा था वह अब जीवन बनता है । महायोगी के शब्दों में अब 'कपट रहित थई आतम अरपणा' होता है । जिसका स्वामित्व अपना नहीं है उसके स्वामित्व का दावा करना वह कपट ही हैं ना? 'अरपणा' करने में कुछ भी छोडना नहीं होता है, सिवाँ अध्यास-भ्रम ।
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। इस न्याय से इस अर्पण के समक्ष देव-गुरु प्रत्यर्पण करते है...
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