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॥ श्लोकसौन्दर्यम् ॥ स्वानुभूतेरभावेन, जगदनुभवो यतः ।
जातायां स्वानुभूतौ तज्, जगन्नेहानुभूयते ॥ जगत की वस्तु, व्यक्ति और घटनाओं का अनुभव उसे ही होता है, जिसके पास स्वानुभूति नहीं है । अतः स्वानुभूति होने पर जगत का अनुभव नहीं होता ।
જગતની વસ્તુ, વ્યક્તિ અને ઘટનાઓનો અનુભવ એને જ થાય છે, કે જેની પાસે સ્વાનુભૂતિ નથી. માટે સ્વાનુભૂતિ થાય, તો જગતનો અનુભવ નથી થતો.
आत्मनोऽनुभवे यस्मात्, तदन्यन्न प्रतीयते ।
ततो हेयाद्यभावेन, स्वानुभवो हि शिष्यते ॥ आत्मानुभूति की क्षणों में आत्मा से अतिरिक्त अन्य किसी भी चीज की प्रतीति ही नहीं होती। इस दशा में कोई चीज छोडने या लेने जैसी नहीं रहती। रहता है केवल स्वानुभव ।
આત્માનુભૂતિની પળોમાં આત્મા સિવાય બીજી કોઈ વસ્તુની પ્રતીતિ જ થતી નથી. આ દશામાં કોઈ વસ્તુ છોડવા કે લેવા જેવી નથી રહેતી, રહે છે માત્ર ને માત્ર સ્વાનુભવ.
अनात्मात्मधियैवेह, प्रोद्भवः सर्वसंसृतेः ।
अतः संसारनिर्विण्णः, स्वान्यत्रात्ममतिं त्यजेत् ॥ "शरीर मैं हूँ," इस भ्रान्ति से ही समग्र संसार की उत्पत्ति हुई है । यदि संसार के दुःखो से खिन्न हो, तो समज लो कि, मैं आत्मा ही हूँ, और कुछ भी नहीं ।
શરીર એ હું છું – આ ભ્રમથી જ સમગ્ર સંસારની ઉત્પત્તિ થઈ છે, સંસારના हु:पोथी होण्य हो, तो सभ तो, '' मात्मा ४ छु, जीटुं शुं ४ नही.
ग्रन्थ - अध्यात्मसर्वस्वम् (अध्यात्मोपनिषद् का श्लोकवार्तिक) ग्रन्थकार एवं अनुवादकार - आचार्य कल्याणबोधि
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