________________
॥ श्लोकसौन्दर्यम् ॥ इच्छासन्त्याग एवेह, भवसन्त्याग उच्यते ।
मुमुक्षोस्तद्विदानस्य, कथमिच्छा प्रवर्तते ? ॥ इच्छा का त्याग ही संसार का त्याग है। जो इस सत्य को जानता है, जिसे मुक्ति की अभिलाषा है, उसे और कोई भी इच्छा कैसे हो सकती है ?
छानो त्याग मे ४ संसारनी त्या छ' - ४ मा सत्यने छ, ने મોક્ષના ઇચ્છા છે, એને બીજી કોઈ ઇચ્છા કેમ જાગી શકે ?
सर्वोत्कृष्टं सुखं नित्यं, य आत्मन्येव पश्यति ।
बाह्यसौख्याय किं तस्य, स्पृहाया स्याल्लवोऽपि हि ॥ ___ जो सदा अपनी आत्मा में ही सर्वोत्कृष्ट सुख को देखता है, उसे बाह्य सुख के प्रति तनिक भी स्पृहा कैसे हो सकती है ?
જે હમેશા પોતાની આત્મામાં જ સર્વોત્કૃષ્ટ સુખને જુએ છે, એને બાહ્ય સુખ માટે થોડી પણ સ્પૃહા શી રીતે થઈ શકે ?
मोदो हि दृश्यते तस्य, शोको यस्य परा भवेत् ।
सर्वदाऽऽनन्दमग्नस्य, कः शोकः किञ्च मोदनम् ॥ हर्ष उसे ही होता है, जिसे पहले शोक हुआ हो । जो हमेशा के लिये आनन्द में ही मग्न है, उसे शोक भी कैसा ? और हर्ष भी कैसा ?
હર્ષ એને જ થાય છે, જેને પહેલા શોક થયો હોય, જે હંમેશ માટે આનંદમાં જ મગ્ન છે, એને શોક પણ કેવો? ને હર્ષ પણ કેવો?
ग्रन्थ - परमसर्वस्वम् ( परमहंसोपनिषद् पर श्लोकवार्तिक) ग्रन्थकार एवं अनुवादकार - आचार्य कल्याणबोधि
१२०