Book Title: Arsh Vishva
Author(s): Priyam
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 114
________________ ॥ श्लोकसौन्दर्यम् ॥ यत्सुखाब्धेः पुरस्तात् तु, बिन्दवति जगत्सुखम् । तदुदेतीह सत्सौख्यं, ज्ञानमग्नस्य योगिनः ॥ जिस सुख के सागर की तुलना में सारी दुनियाँ का सुख केवल एक बुंद जैसा है, वह श्रेष्ठ सुख प्राप्त होता है ज्ञानमग्न योगी को । જે સુખના સાગરની તુલનામાં આખી દુનિયાનું સુખ માત્ર એક ટીપા જેવું છે, તે શ્રેષ્ઠ સુખ જ્ઞાનમગ્ન યોગીને પ્રાપ્ત થાય છે. सहजेन स्वभावेन, परभावात् पलायनम् । यस्य तस्यात्मनिष्ठस्य, परब्रह्मणि मग्नता ॥ जो सहज स्वभाव से परभाव से पलायन करता है, वह आत्मनिष्ठ साधक परब्रह्म है में मग्न 1 જે સહજ સ્વભાવથી પરભાવથી દૂર ભાગે છે, તે આત્મનિષ્ઠ પરબ્રહ્મમાં મગ્ન छे. तटस्थता यथोदेति, परस्य सुखदुःखयोः । स्वसुखादौ तथाभावात्, साक्षित्वमवशिष्यते ॥ जैसे दुसरों के सुख-दुःख के प्रति व्यक्ति उदासीन रहती है, ठीक वैसे ही अपने सुख-दुःख के प्रति उदासीन भाव आ जाये, तो साक्षिभाव ही अवशिष्ट रहता है । જેમ બીજાનાં સુખ-દુઃખના પ્રત્યે વ્યક્તિ ઉદાસીન રહે છે, તે જ રીતે પોતાનાં સુખ-દુઃખ પ્રત્યે તટસ્થભાવ આવી જાય, તો સાક્ષીત્વ જ બાકી રહે છે. ग्रन्थ निमग्नोपनिषद् (ज्ञानसार - मग्नाष्टक पर श्लोकवार्त्तिक) ग्रन्थकार तथा अनुवादकार आचार्य कल्याणबोधि - - ११४

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