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जगत सत्य है, ऐसी प्रतीति संसार का हेतु है । जगत असत्य है, ऐसी प्रतीति संसार की निवर्तक बनती है ।
आत्मोपनिषद् की रचना अज्ञात पूर्व महर्षिने की है। इस ग्रंथ का संबंध अथर्ववेद से है । संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रंथ में 'अनुष्टुप् छंदमय श्लोक भी है, और गद्यअंश भी, जिसका कुल प्रमाण ४३ श्लोक जितना है । आत्मोपनिषद् का तत्त्व जितना गहन है, उतना ही प्रभावशाली है, समजने का प्रयास करें, तो अति सरल भी है ।... सत्यत्वेन जगद्भानम्...राजा घबराया और दौड़ा, यतः जो सत्य नहीं था, उसे उसने सत्य मान लिया था । सारे जगत की सर्व चेष्टा हर्ष, शोक, हास्य, रुदन, भय, कंप, दौड़ इन सब का हेतु भी यही है ।
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यहाँ तर्क हो सकता है, कि 'इन्द्रजाल असत्य थी, पर जगत तो सत्य है ।' ठीक है, आधी बात तक तो पूर्वमहर्षि और हम साथ साथ ही खड़े है । अब सोचो, इन्द्रजाल असत्य क्यों ? गलत है इस लिये ? तो गलत कैसे ? जो दिख रहा है, सुनाई दे रहा है, जिसका अनुभव हो रहा है, वह गलत कैसे हो सकता है ? आखिर में तो यही कहना पड़ेगा कि जो देखा-सुना - अनुभव किया, बाद में उनमें से कुछ भी नहीं था, अतः वह
गलत था ।
छोटा बच्चा फिल्म या नाटक के करुण दृश्य देखकर रोता है, तब उसकी माँ उसे समजाती है - बेटा ! तूं रो मत । यह सब गलत होता है । फिल्म में नायक की मृत्यु देखी - सुनी-अनुभव की, किन्तु वह झूठ है । यतः केमरे की स्विच ऑफ हो, फिर वैसा होता नहीं है। इन्द्रजाल हो या फिल्म हो, नाटक हो या स्वप्न हो, वह सब झूठ है, यतः फिर वैसा होता नहीं है | सृष्टि का यह सर्वसम्मत सत्य है, कि जो स्थिर नहीं, वह सत्य
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नहीं ।
जो स्थिर नहीं, वह सत्य नहीं ।
अब इसी नाँप से जगत को व जीवन को नाँपना है
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क्यां जगत सत्य है ? जैसे स्वप्न स्थिर नहीं, वैसे जगत भी स्थिर नहीं । जैसे इन्द्रजाल में दिखाई देती चीज़ हमेशा के लिये नहीं होती, उस तरह जगत भी हमेशा के लिये नहीं होता । जैसे नाटक का अंत है, वैसे हम से संबंधित जगत का भी अंत है । जैसे केमरे की स्विच ऑफ होते ही फिल्म का दृश्य बदल जाता है, उस तरह श्वास की स्विच ऑफ होते ही जीवन का दृश्य बदल जाता है | पंचसूत्र में कहा है - सुविणु व्व सव्वमालमालु त्ति - जैसे स्वप्न सत्य नहीं
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