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के गाँव उसमें डुब रहे है ।" राजा अवाचक बनकर देखता रहा... बड़ी बड़ी लहरीयाँ अंबर कों छू रही है...हजारो लोग व लाखो पशु डुब रहे है । उस तूफान के जोर से घर गिर रहे है, वृक्ष उखड रहे है- "देखिये महाराज ! अब तो यह समंदर अयोध्या की सीमा में भी आ गया । देखो आप की प्रजा विवशतया डुब रही है.... और अब तो... यह पानी राजमहल तक आ गया । देखो, राजसभा की सीडियाँ भी डुब गयी । राजन् ! जान बचानी हो तो उपर के मजले..." राजा दोड़े ... पहला मजला...दुसरा...तीसरा... राजा की गति तेज है, तो पानी की गति भी कुछ कम नही... दुनियाभर का मौत का हाहाकार राजा के कानों में गुंज रहा है...पानी केवल चार सीडी ही पीछे है... चौथा मजला... पांचवा... छठवा...साँतवा...और अब तो उपरितल आ गया । वहा से जो दृश्य देखा, उस से राजा को चक्कर ही आ गया । चारों ओर आकाश को छू रहा पानी... बस दो-चार पल... और सब कुछ एक... राजा उपरितल की सीमा तक पहुँचे है, ओर कोई चारा न देखकर पानी में कूदने ही जा रहे है, तब उनको सुनाई दिया - "रुको महाराज ! आप क्या कर रहे हो ?"
राजाने देखा, तो स्वयं राजसभा में राजसिंहासन पर ही है । पानी का कोई नामोनिशान नहीं है । राजा अत्यंत विस्मय से चारों ओर देख रहा है, तब उस विद्वानने विनयपूर्वक प्रणाम करके कहा, “क्षमा करना राजन् ! मैं नैमित्तिक नहीं, पर इन्द्रजालिक हूँ | मेरी कला दिखाने के लिये मैंने यह प्रयोग किया था । राजा एक विस्मय से बाहर आये, उससे पहले दुसरे विस्मय के प्रभाव में आ गये। मंत्रीश्वर के कहने पर राजाने उस विद्वान को क्षमा दी, और उसकी कला का उचित सम्मान किया ।
भारत की प्राच्यविद्या की एक लुप्त कला है इन्द्रजाल । आज के मनोरंजन के साधन पानी भरें, ऐसी वह अद्भुत कला थी । किन्तु यहाँ जो बात करनी है, वह मनोरंजन के परिप्रेक्ष्य में नहीं, पर अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में है । राजा का विस्मय, उनकी चिंता, उनका भय, उनकी दौड़... इन सब का हेतु क्या था ? समंदर का तूफान ? नहीं, वह तो था ही नहीं ।"
हमारे पूर्व महर्षिओं ने इन्द्रजाल की इस घटना के समांतर ही समस्त संसार के हेतु का चिंतन किया है, जिस चिंतन का नवनीत आत्मोपनिषद् नाम के ग्रंथ में उपलब्ध होता है
सत्यत्वेन जगद्भानं, संसारस्य प्रवर्तकम् । असत्यत्वेन भावं तु, संसारस्य निवर्तकम् ॥
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