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बात अफसोस की है, मगर हमें केवल अफसोस नहीं करना है, मूल में जाकर मंथन करना है । बारहवी में ९१% लाने वाले छात्र के लिये हम मान सकते है के उसने बारह साल तक अत्यंत निष्ठा से अभ्यास किया होगा, प्रत्येक क्लास में उस का परिणाम तेजस्वी रहा होगा, यतः सरकारने निश्चित किये हुए पाठ्यपुस्तकों का उसने श्रेष्ठ अभ्यास किया होगा । इतने अभ्यास के बाद भी यदि छात्र ऐसी चेष्टा करे, तो उसके लिये उस छात्र की ही क्षति समज़नी चाहिये ? या जो शिक्षा उसने पायी है, उसकी भी क्षति समजनी चाहिये ?
गृहकार्य, नौकरी आदि के दायित्व के साथ साथ जो माता - पिताने बारह / पंद्रह साल तक अपने संतानों को स्कुल तक ले जाने - वापस लाने के लिये परेशानीयों का सामना किया है, पसीने से कमाये हुए पैसों का व्यय किया है । स्कुल- ट्युशन्स - क्लासिस की कमरतोड़ ‘फी' का बोजा उठाया है। अरे, अरबों रूपये से भी जिसका मूल्यांकन न हो सके, ऐसी संतानों की एक एक क्षण का विनियोग माता - पिताने जिस शिक्षा के लिये किया है, उन माता-पिताओं को शिक्षातंत्र क्यां सिला देता है ? करोड़ों मातायें प्रातः अपने प्यारे बेटे को कच्ची नींद से जगाती है, जल्दी जल्दी स्नान, नास्ता आदि प्रातः क्रम के कार्य कराती है, अत्यंत चिंता के साथ भाग-दोड़ करके स्कुल बस का आगमन की क्षण पर बेटे को लेकर रोड़ पर पहुँच जाती है और बस का आदमी बेटे को दो सीढीयों उपर चड़ा दे, तब राहत का दम लेती है, पर लाख रूपये का प्रश्न यह है, कि क्या वास्तव में इसमें राहत मनाना जैसा होता है ? इतना कुछ करके अपनी आँखो के तारे जैसे बेटे को माता-पिता जिस शिक्षातंत्र को समर्पित कर देते है, उस शिक्षा - तंत्र को अपने दायित्व का कितना अहसास है ? वह शिक्षातंत्र जो शिक्षा दे रहा है, उसमें जीवनोपयोगी शिक्षा कितनी होती है ?
छात्र की आत्महत्या के
लिये कौन जिम्मवार ?
छात्र ? या उसे दी गयी निरुपयोगी शिक्षा ?
अनुत्तीर्ण होने से या अपेक्षित नंबर नहीं
आने से एक किशोर जंतुनाशक दवाई पी जाता है । पर्सनल (!) जीवन में मम्मी के डिर्स्टबन्स
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(!) से एक कन्या सातवे मजले से कूद पड़ती है । सास के दो शब्द सहन न होने से नववधू शरीर पर केरोसीन डालकर जल जाती है। नौकरी की तलाश कर करके थका हुआ युवान ट्रेन की पटरी पर सो जाता है ।
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