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जीवन जीने की कला धर्मोपनिषद्
नाँव नदी के पानी को चीरती हुई आगे जा रही है। सेठ सफर का आनंद ले रहे है । उस समय उन्हें कोइ खयाल आया । नाविक से पूछा “तँ कुछ पढ़ा-लिखा है या नहीं ? नाविकने भोले भाव से उत्तर दिया- "नहीं, मेरे लिये तो काला अक्षर भैंस बराबर है ।" सेठने कहाँ - "तेरी पाँव जिंदगी पानी में गई । ठीक है, मगर तूने कितना धन संचित किया है ?" नाविकने कहां "मेरे पास तो फूटी कोड़ी नहीं मैं तो रोज कमाता हूँ और रोज खाता हूँ ।" "अरे रे तेरी तो आधी जिंदगी पानी में गई । पर तो बोल, कि तूने शादी की है या नहीं ?" इस बार नाविक जरा सा हंस पड़ा... "सेठ, मेरे जैसे गरीब को कौन अपनी बेटी देगा ?" "ओह, तेरी पोनी जिंदगी पानी में गई । "
यह
आर्ष विश्व
आचार्य कल्याणबोधि
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यह बात चल ही रही थी कि नाँव का एक हिस्सा तूट गया । पानी शीघ्र वेग से अंदर आने लगा । सेठ चकित होकर देखने लगे । नाविकने सेठ से पूछा “सेठ ! आप को तैरना तो आता है ना ?" सेठने घबराहट के साथ जवाब दिया "नहीं ।" "तो आप की पूरी जिंदगी पानी में गई ।"
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फिर क्याँ हुआ, वह कहने की आवश्यकता नहीं है । बात केवल उस सेठ की नहीं, समाज की, देश की व दुनिया की है। आज व्यक्ति, स्पोकन इंग्लीश के क्लास भर भर के देशी या विदेशी इंग्लीश बोलने लगता । छोटी-मोटी डिग्री पा लेता है । पैसे कमाने के तरीके सीख लेता है । फेर स्कीन वाली लड़की को चुन लेता है । पर जीवन में अनेक प्रकार के समंदर आते है, जिन्हें तैरना उनको आता ही नहीं । अतः परिणाम यही आता है, जो उस सेठ का आया था ।
धर्मोपनिषद् जीवन जीने की कला सीखाता है। जीवन में आते समंदरों को तैरना सीखाता है। दुःख में हँसना सीखाता है । सुख में स्वस्थ रहना सीखाता है । प्रलोभन के समक्ष अड़िग रहना सीखाता है । पारिवारिक प्रेम, शांति व विश्वास को बनाये रखना सीखाता है । और उस व्यक्तित्व का निर्माण करता है, जो व्यक्ति के अपने हित में तो