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जो भीतर में खाली है,
चूने के रस में स्नान करे, तो भी कौआ
काला ही होता है । सुख के सैंकड़ो साधनो के उसे बाहर की कोई
बीच भी रागी दुःखी ही होता है । हाँ, भ्रम व चीज भर नहीं सकती।
अभिनय सुख का भी हो सकता है, पर उसका क्याँ फायदा ? एक भिक्षुक कल्पना करे, कि मैं प्रधानमंत्री या उद्योगपति बन गया, तो उसका क्याँ लाभ ? उसकी पेट भरने की चिंता तो ज्यों कि त्यों है । रागी भ्रम को वास्तविकता समजता है...अतः सुख-दुःख के भ्रम में फसकर अपने आप को दुःखी करता है । विरागी वास्तविकता को ही वास्तविकता समजता है । अतः वह किसी भी निमित्त की उपस्थिति में सहजानंद में मग्न रहता है। कोयले के ढेर में लेटे, तो भी हंस सफेद होता है । दुःखों के सैकड़ो निमित्तों के बीच भी विरागी सुखी होता है....सदानन्दमश्नुते...
विराग सुख का परम रहस्य है । विराग में भगवत्त्व की भव्यता है । नीतिवाक्यामृतम् में कहा है -
स खलु प्रत्यक्षं दैवतम्, यस्य
परस्वेष्विव परस्त्रीषु निःस्पृहं चेतः । प्रत्यक्ष भगवान है वह, जिसे परधन और परस्त्री के प्रति कोई भी स्पृहा नहीं है। अष्टावक्रगीता में विराग की इसी अस्मिता का दर्शन हो रहा है -
सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वा, मृत्युं वा समुपस्थितम् ।
अविह्वलमनाः स्वस्थो, मुक्त एव महाशयः ॥ आगमन चाहे अनुरागिणी स्त्री का हो, या मृत्यु का हो, जिसके मन में लेश भी विह्वलता नहीं, जो पूर्णतया स्वस्थ है, वह महाशय मुक्त ही है । स्त्री / पुरुष या मृत्यु का संबंध देह के साथ है । विरागी तो देहातीत आत्मदशा की अनुभूति करता है, जिसमें केवल पूर्णता है । बाह्य सुखसाधन न उसमें कुछ सुधारतें है, ना ही शामिल करतें है । बाह्य दु:खों के निमित्त न उसका कुछ बिगाड़ सकते है, ना ही उससे कुछ चुरा सकते है । अध्यात्मोनिषद् यही बात करता है -
अखण्डानन्दमात्मानं विज्ञाय स्वस्वरूपतः ।