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सुख का परम रहस्य है विराग
विरागी जानता है, कि 'अखण्ड आनन्द की पूर्णता ही मेरी आत्मा का स्वरूप है।' परमानन्द की यह अनुभूति जिसे प्रतिक्षण रोमांचित कर रही है,
उसका रोम बाह्य पदार्थो से कैसे कंपित हो सकता है। भीतरी अलौकिक आत्मस्वरूप को जो निष्पलकतया देख रहा है, उसकी पलकें बाह्य रूप को देखने के लिये कैसे उंची हो सकती है ?...वैराग्यस्य तदावधिः...
रूपकोशा आज भी नाच रही है। रागी दःखी है। विरागी सखी है। हमें क्याँ होना, इसका निर्णय करने के लिये हम स्वतंत्र है ।
(मूल गुजराती से अनुवादित)
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