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आर्षविश्व
आचार्य कल्याणबोधि
अध्यात्म का अमृत
अध्यात्मोपनिषद्
अंग अंग से लावण्य बह रहा है... मानों सौन्दर्य की सरिता बह रही है... नशा निसीम बना है...मोहकता का साम्राज्य छा गया है... अदायें अवर्णनीय बनी है... नृत्य चरम सीमा को प्राप्त हुआ है... पत्थर को भी पानी पानी कर दे, ऐसी स्थिति का सृजन हुआ है । नाम ही तो है रूपकोशा... रूप का मूर्तिमंत कोश ।
पर रे ! मुनि स्थूलभद्र की आँखे भी उंची नहीं हो रही है और एक रोम भी कंपित नहीं हो रहा । मानों कुछ भी है ही नहीं, ऐसा उपेक्षाभाव । जैसे स्वयं वहा हाज़िर ही नहीं, ऐसा अंतर्मुख भाव । सचमुच, आत्मगुणों की अनंत समृद्धि की तुलना में बाहर था भी क्यां ? बाह्य लावण्य के आवरण में मल-मूत्र की गंदगी.... नृत्य के नाम पर व्यर्थ उछल-कूद...संगीत के बहाने से केवल शोर । नहीं, बाहर कुछ भी नहीं था, और वह खुद भी वहा नहीं है, वह तो मग्न है, भीतरी परमानन्द के अमृतकुंड में ।
शास्त्रने कहा हुआ तत्त्व जिसके जीवन में जीवंत बना हो उसका नाम है संत । शास्त्र है अध्यात्मोपनिषद् और तत्त्व है विराग ।
वासनानुदयो भोग्ये, वैराग्यस्य तदावधिः । अहंभावोदयाभावो, बोधस्य परमावधिः ॥ लीनवृत्तेरनुत्पत्ति-र्मर्यादोपरतेस्तु सा । स्थितप्रज्ञो यतिरयं यः सदानन्दमश्नुते ॥
शास्त्रकथित तत्त्व जिसके जीवन में जीवंत बना है उसका नाम है संत
भोग्य की उपस्थिति में भी वासना न जगे, वह विराग की पराकाष्ठा है । अहंकार की संभावना ही नष्ट हो जाये, वह
ज्ञान की चरम सीमा है । राग-द्वेष की वृत्ति की ऐसी मृत्यु हो, कि जिसके बाद जन्म ही नहीं, वह विरति की पराकाष्ठ है । विराग, ज्ञान व विरति का यह त्रिवेणी संगम जहा
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