Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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XXI : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
स्तर हैं इसमें कुछ स्तर अवश्य ही ई पू के है किन्तु समवायांग की भाँति भगवती में भी पर्याप्त प्रक्षेप हुआ है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, नन्दी आदि परवर्ती आगमों का निर्देश हुआ है। इनके उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि इसके सम्पादन के समय इसमें इसी प्रकार की सूचनायें दे दी गयी हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि वल्लभी वाचना में इसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और संशोधन अवश्य हुआ है, फिर भी इसके कुछ शतकों की प्राचीनता निर्विवाद है। कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान इसके प्राचीन एवं परवर्ती स्तरों के पृथक्करण का कार्य कर रहे हैं। उनके निष्कर्ष प्राप्त होने पर ही इसका रचनाकाल निश्चित किया जा सकता है।
- आगम साहित्य में उपासकदशा श्रावकाचार का वर्णन करने वाला प्रथम ग्रन्थ है। स्थानांगसूत्र में उल्लिखित इसके दस अध्ययनों और उनकी विषयवस्तु में किसी प्रकार के परिवर्तन होने के संकेत नहीं मिलते हैं। अतः यह ग्रन्थ भी अपने वर्तमान स्वरूप में ई.पू. की ही रचना है और इसके किसी भी अध्ययन का विलोप नहीं हुआ है। श्रावकव्रतों के सम्बन्ध में तत्वार्थसूत्र में स्पष्टतः इसका अनुसरण देखा जाता है अतः यह तत्वार्थ से अर्थात् ईसा की तीसरी शती से परवर्ती नहीं हो सकता है।
अंग आगम साहित्य में अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु का उल्लेख हमें स्थानांगसूत्र में मिलता है। इसमें इसके निम्न दस अध्याय उल्लिखित हैं - नमि, मातंग, सोमिल, रामपुत्ते, सुदर्शन, जमालि, भगालि, किकिम, पल्लतेतिय, फाल अम्बडपुत्र। एक सुदर्शन सम्बन्धी कुछ अंश को छोड़कर वर्तमान अन्तकृत्दशासूत्र में ये कोई भी अध्ययन नहीं मिलते हैं किन्तु समवायांग और नन्दीसूत्र में क्रमशः सात और आठ वर्गों के उल्लेख मिलते हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृत्द्दशा का प्राचीन अंश विलुप्त हो गया है। यद्यपि समवायांग और नन्दी में इसके क्रमशः सात एवं आठ वर्गों का उल्लेख होने से इतना तय है कि वर्तमान अन्तकृत्दशा समवायांग और नन्दी की रचना के समय अस्तित्व में आ गया था। अतः इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की चौथी-पाँचवी शती का है। इसके प्राचीन दस अध्यायों के जो उल्लेख हमें स्थानांग में मिलते हैं उन्हीं दस अध्ययनों के उल्लेख दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के ग्रन्थों यथा अकलंक के राजवार्तिक, धवला, अंगप्रज्ञप्ति आदि में भी मिलते हैं। इससे यह फलित होता है कि अंग के प्राचीन स्वरूप के विलुप्त हो जाने के पश्चात् भी माथुरी वाचना की अनुमति से इसमें स्थानांग उल्लिखित इसके दस अध्यायों की चर्चा होती रही है। हो सकता है कि इसकी माथुरी वाचना में ये दस अध्ययन रहे होंगे। .: बहुत कुछ यही स्थिति अनुत्तरौपपातिकदशा की है। स्थानांगसूत्र की सूचना के अनुसार इसमें निम्न दस अध्ययन कहे गये है :.. 1. ऋषिदास, 2. धन्य, 3. सुनक्षत्र, 4. कार्तिक, 5. संस्थान, 6. शालिभद्र, 7.
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