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अपनश भाषा के प्रमुख बन साहित्यकार : एक सर्वेक्षण महाकवि वीर ने अपना परिचय स्वय दिया है। उससे के बाद इनका नाम मुनि कनकामर हुआ। इनका शरीर ज्ञात होता है कि महाकवि वीर का जन्म मालव देश के कनक अर्थात् सोने के समान अत्यन्त मनोहर था"। महागुलखेड नामक ग्राम में हुआ था। लाडवर्ग गोत्र में उत्पन्न कवि कनकामर ने मात्र अपभ्रंश भाषा मे 'करकडरिउ' महाकवि देवदत्त इनके पिता थे। इनकी माता का नाम नामक महाकाव्य की रचना की और इसी एक मात्र कृति श्रीसन्तुआ था"। इनके तीन भाई थे-सीहल्ल, लक्षणांक से वे अमर हो गए। डा. हीरालाल जैन ने 'करकडुचरिउ' एवं जसई। महाकवि वीर की जिनमति, पद्मावती, लीला- की प्रस्तावना मे ऊहापोह के साथ मुनि कनकामर के समय वती और जयादेवी नाम की चार पस्नियां थी"। 'जंबू- का विश्लेषण करते हुए उन्हें १०४०-१०५१ ईसवी सन सामिचरिउ' की प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि का बतलाया है। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री का भी यही इनकी प्रथम पत्नी से नेमिचन्द्र नाम का पुत्र हुआ था जो मत है"। इनका व्यक्तित्व साधुमय था और ये उदार विनय गुण से युक्त था । संस्कृत भाषा के पडित, राज- हृदय के मनस्वी थे। इनके आश्रयदाता का नाम विजय नीति में दक्ष, स्वभाव से विनम्र उदार, मिलनसार, भक्त पाल नरेश, भूपाल और कर्ण राजा थे ऐसा प्रशस्ति से व्रती एवं धर्म में आस्था रखने वाले 'वीर महाकवि' ने ज्ञात होता है। 'करकडुचरिउ' की प्रशस्ति से यह भी अपने पिता की प्रेरणा से 'जंब्रसामिचरिउ' की रचना की ज्ञात होता है कि उनके चरण कमलों से भ्रमर स्वरूप थी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अपने पिता के मित्रों तीन पुत्र थे-आहुल, रल्हु और राहुल"। इनके माताके अनुरोध पर अपभ्रंश भाषा में इस महाकाव्य को पिता एवं जन्म स्थान के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध लिखा था। अपने पिता की स्मृति में मेघवन पट्टण में नहीं है, लेकिन 'आसाइय' नगरी में रह करके 'करकंड़महावीर भगवान का मन्दिर भी बनवाया था। महाकवि चरिउ' की रचना की थी। डा० हीरालाल ने अपनी वीर के विषय में यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने जैन गवेषणात्मक 'करकंडचरिउ' की प्रस्तावना में इस नगरी ग्रंयों के अलावा शिव पुराण' वाल्मीकि रामायण, महा. को मध्यप्रदेश में माना है। भारत, भरत नाट्य शास्त्र आदि का भी अध्ययन किया मुनि नयनन्दी-अपभ्रश भाषा में 'सुदंसणचरित'
'लविहिविहाण काव्य' की रचना करने वाले मुनि महाकवि वीर का जन्म कब हुआ यह तो बतलाना नयनन्दि माणिक्यनन्दि विद्य के शिष्य थे। ये आचार्य सम्भव नही है। लेकिन 'जंबूसामिचरिउ' की समाप्ति वि. कुन्दकुन्द की परम्परा में हुए थे, उनके ग्रंथ से ज्ञात होता सं.१०७६ में माघ शुक्ल १०वीं के दिन हुई थी। इससे है" । 'सुदर्शनचरित्र' की अन्तिम सन्धि में उन्होंने अपनी सिद्ध है कि वीर निश्चित ही ११वीं शती से पहिले हुए गुरु परम्परा का उल्लेख किया है। उससे ज्ञात होता है थे। दूसरी बात यह है कि वि० की आठवी शदी मे हुए कि सुनक्षत्र, पचनन्दि, विष्णूनन्दि, नन्दिनन्दि, विष्वनन्दि, स्वयंभू एव ९-१० वि० की शदी में हुए पुष्पदन्त का विशाखनन्दि, रामनन्दि, माणिक्यनन्दि और इनके प्रथम इन्होंने उल्लेख किया है। इससे यह भी स्पष्ट है कि वि. शिष्य जगविख्यात एवं अनिंद्य मुनि नयनन्दि हुए। उन्होंने सं० १०२९ और १०७६ के मध्य महाकवि वीर का जन्म अवन्ती देश की धारानगरी में राजा भोजदेव के शासनहुभा होगा।
काल में विशाल जिन मन्दिर में वि० स० ११०० में कनकामर-अपभ्रंश भाषा के महाकवि मुनि सुदर्शन चरित्र की रचना की थी। कनकामर का जन्म ब्राह्मण वंश के चण्ड ऋषि गोत्र में योगीन्दु-अपभ्रश भाषा मे आध्यात्म तत्व की हआ था। 'करकंडचरिउ' को प्रशस्ति से ज्ञान होता है कि रचना करने करने वाले जोइन्दु, योगीन्दु, योगीन्द्रदेव, इनके बचपन का नाम विमल था। वैराग्य होने पर जोगीचन्द, जोगचन्द के नाम से जाने जाते हैं। ऐसा इन्होंने दिगम्बर दीक्षा ली थी। इनके गुरु का नाम उक्त लगता है कि अपनश शब्द जोइन्दु के ही शेष शब्द हिन्दी प्रशस्ति में बुधमंगलदेव बतलाया गया है। मुनि दीक्षा लेने भाषा में पर्यायवाची बन गये हैं। योगीन्दु ने अपने विषय