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६, वर्ष ४५, कि० २
अनेकान्त
सर्व आत्मा में एकत्व का प्रसङ्ग आएगा।
उसी प्रधान का विधार होने से आकाश के भी अनित्यत्व, पांचवें अध्याय के मत्रहवें सूत्र की व्याख्या मे कहा अमर्तत्व और असर्वगतत्व होना चाहिए या फिर आकाश गया है कि जैसे अमूर्त भी प्रधान पुरुषार्थ प्रवृत्ति से महान् की तरह घट के भी नित्यत्व, अमूर्तत्व और सर्वगतत्व अहंकार आदि विकार रूप से परिणत होकर पुरुष का होना चाहिए; क्योंकि एक कारण से दो परस्पर अत्यन्त उपकार करता है, उसी प्रकार अमूर्त धर्म और अधर्म विरोधी नहीं हो सकते। द्रव्य को भी जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति मे छठे अध्याय के दसवें सूत्र की ख्या में कहा गया उपकारक समझना चाहिए।
है कि कारण तुल्य होने से कार्य तुल्य होना चाहिए, इस सांख्य का आकाश को प्रधान का विकार मानना पक्ष में प्रत्यक्ष और पागम से विरोध आता है। मिट्टी के ठीक नहीं है। क्योकि आत्मा की तरह प्रधान के भी पिण्ड से घट, घटी, शराब, उदञ्चन आदि अनेक कार्य विकार रूप परिणमन नही हो सकता।
होने से उपर्युक्त सिद्धान्त से प्रत्यक्ष विरोध आता है। प्रश्न-सत्व, रज और तम इन तीन गुणों की साम्य सांख्य एक प्रधान तुल्य कारण से महान् अहंकार आदि अवस्था ही प्रधान है, उस प्रधान मे उत्पादक स्वभावता नाना कार्य मानते है"। है। उस प्रधान के विकार महान, अहकार आदि है तथा वस्तुओं में भिन्न-२ स्वभाव स्वीकार किए जाने में आकाश भी प्रधान का एक विकार है।
सांख्य का भी उदाहरण दिया गया है, जहाँ सत्त्व, रज, उत्तर-यह कथन भी अयुक्त है; क्योकि प्रधान पर. तम गुणो का प्रकाश, प्रवृति और नियम आदि स्वभाव मात्मा के समान नित्य, निष्क्रिय, अनन्त आदि अविशेषपने ___माना गया है"। से परमात्मा का आविर्भाव और तिरोभाव नहीं होने से योगदर्शन-मोक्ष के कारणों के विषय मे विभिन्न उसमे परिणमन का अभाव है, उसी प्रकार आत्मा के वादियों के मत वैभिन्न को दिखलाते हुए योगदर्शन की समान अविशेष रूप से नित्य, निष्क्रिय और अनन्त होने मान्यता की ओर निर्देश किया गया है, जिसके अनुसार से प्रधान के भी विकार का अभाव है और प्रधान के ज्ञान और वैराग्य से मोक्ष होता है। पदार्थों के अवबोध विकार का अभाव होने से "प्रधान का विकार आकाश को ज्ञान कहते है और विषयसुख की अभिलाषाओं के है', इस कल्पना का व्याघात होता है। अथवा जैसे प्रधान त्याग अर्थात् पंचेन्द्रियजन्य विषयसुखो में अनासक्ति को के विकार घट के प्रनित्यत्व, मत्तत्व और असर्वगतत्व है, वैराग्म कहते है"।
(क्रमशः) सन्दर्भ-सूची १. विशेष जानकारी के लिए सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र २०. वही ५२२२२२६. २१. अपर आहः क्रियात एव शास्त्री की सर्वार्थसिद्धि को प्रस्तावना देखिए।
मोक्ष इति । तत्त्वार्थवार्तिक १।११५. २. न्यायकुमुदचन्द्र प्र. भाग (प. कलाशचन्द्र शास्त्री रा २२. सत्सम्प्रयोगे पुरुषष्पन्द्रियाणां बुद्धिजन्मतत्प्रत्यक्षं ।
वही १११।५. मी. द. १२१४. लिखित प्रस्तावना पृ. ४३)।
२३. तत्त्वार्थवार्तिक १३१२१५. ३. तत्त्वार्थवातिक ११८. ४. वही १११।१२. २४. अपूर्वाख्यो धर्मः क्रियया अभिव्यक्तः सन्नमर्तोऽपि पुरु५. वही १३११३. ६. वही १।१।१४.
षस्योपकारी वर्तते तथा धर्माधर्मयोरपि गतिस्थित्युप७. वही १११११५. ८. वही १११६.
ग्रहोऽवसेयः । वही ५। ७।४१. . वही १११४४. १०. वही ११६१४. २५. तत्त्वार्थवार्तिक २२४१५. ११. वही १।१०।८-६. १२. वही ११३२१४. २६. वही ११११८. २७. वही श. १३. केचित्ताबदाहुः ज्ञानादेव मोक्ष इति वही ॥१॥६.
२८. इतरे ब्रवते-प्रकृतिपुरुषयोरनन्तत्वं सर्वगतत्वादिति । १४. तत्त्वार्थ वा. १।१।४५. १५. वही ११११४६.
वही ५४.
२६. तस्वार्थवार्तिक ५॥१७॥२३ ३०. वही ५।१७।४१. १६. वही ५।१८।१२. १७. वही ५।२६।१७. ३१. वही ५।१८।१ . ३०. वही ६।१०।११. १८ वही ७।२२।१०. १६. वही ॥३६६. ३३. वही ६२७४६. ३४. वही १.१०६.