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१८. हर्ष ४५, कि. २
अनेकान्त
सुलभ थी इस बात की सम्भावना पर अवश्य ही विश्वास वुमारी से लगभग १६ कि. मी. की दूरी पर स्थित किया जा सकता है। श्री लका मे बौद्ध धर्म के प्रवेश के "कोट्टरू" मे उसने बहुत-से दिगम्बरो को देखा । अब यह साथ (ईसा पूर्व सदियों मे) ही जिम मिडली भाषा का स्थान नागर कोविल शहर का एक भाग है। यहां यह विवाम हुआ, उसमें भी प्राकृत तत्व पाए गा हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि उसने दिगम्बर शब्द का ही प्रयोग स्थिति उसी प्रकार की सम्भव है जैसी कि किसी समय किया है। इससे यह परिणाम निकलता है कि नग्न मंस्कृत को एक सपर्क भाषा के रूप में थी और आजकल मुनियो ने आचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत रचनाओं जैसे हिन्दी या अंग्रेजी की। दक्षिण भारत मे भी अशोक के नियममार, समयमार आदि का प्रयोग अवश्य किया होगा शिलालेख प्राकृत मे हैं। यह भी इस तथ्य की सूचना है क्योकि जैनधर्म के प्रामाणिक ज्ञान के लिए ये ग्रन्थ अनिप्राप्त तमिलहम-केरल प्रदेश मे समझी जाती थी। वार्य पाठ्यपुस्तको जैसे है।
ईसा की प्रारम्कि सदियो में आचार्य कृन्दवृन्द ने आठवीं शताब्दी में भी केरल मे प्राकृत का पठनप्राकृत भाषा मे ही दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रामाणिक ग्रन्थों पाठन होता था। इसका प्रमाण यह है कि मुसिरि की रचना। उनका स्थान इस सम्प्रदाय मे महावीर (प्राचीन काल में केरल का एक बन्दरगाह जो आजकल के समकालीन और उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) के बाद कोडंगलपुर के नाम से जाना जाता है) के एक विद्वान बडे आदर गे स्तुति में लि ! जाना है। वे दाक्षि गम नीलकठन ने तमिन सगम माहिता की "इरेयनार" विद्वान थे यह सर्बमान्य है। आचार्य न इसकी रचना 'अकाप्पोमह' (Iraiyanar Akapporui) पर ए. टीका प्राकृत समझो वाली जनसमुदाय को ध्यान में रखकर को लिखा थी। उसमे उसने यह लिखा है कि यह टीका होगी। स्वयं उनका इस भाषा मे पाण्डिल्य भी यह सकेत उसकी दस पीढियों से मौखिक रूप से चली आ रही थी देता है कि प्राकत का पठन-पाठन व्यापक एवं व्यवस्थित जिसे उसने लिपिबद्ध कर दिया। इरेयनगर का अर्थ पहा होगा। केरल के वामनाड जिले मे "तिरुनेल्ली" में बश्वर होता है। किन्हीं कारणो से यह कह दिया गया प्राचार्य कन्दकन्द के चरण स्थापित हैं। उन्हें जैन परंपरा किइसकी रचना शिवजी ने की किसी आचार्य के चरण मानती है और ब्राह्मण परम्परा राम के शिवराज नामक विद्वान ने यह खोज की है कि हम रचना चरण घोषित करती है। आचार्य के श्रोता प्राकृत सम. और एक अन्य तमिल अथतोल कप्पियम (जिसे श्री झते होगे।
शिवराज ने जैन कृति कहा है) के छदो में अनेक समानकेरल के अनेक शिलालेख या तो नष्ट हो गए हैं या ताये है । इस टीका मे पर्याप्त संख्या में प्राकृत शन्दो को अभी इस दिशा मे सर्वांगीण कार्य नही हआ है। इस देखते हुए मार जॉन राल्सटन ने "दी एट एन्थालॉजीज" कारण केरल के समीपवर्ती पल्लव-राज्य प्रदेशो के जो नामक पुस्तक में यह मत व्यक्त किया है कि- "From शिलालेख ईसा को चौथी शताब्दी तक के अध्ययन-क्षेत्र मे the above it is clear that in Kerala Prakrit
आए हैं. उनसे यह निस्कर्ष सामने आया है कि इस अवधि was studies and even learnt oraley down to तक पल्लव "शिला नेख प्राकृत" मे थे, उसके बाद सस्कृत the eighth century." (P 4) मे और इसके बाद तमिल और संस्कृत मे। स्पष्ट है कि एक स्वतत्र भाषा के रूप में मलयालम नौवी दसवी उपर्यत अवधि में भी प्राकृत समझी जाती थी। केरल पर शताब्दी मे अस्तित्व मे आई किन्त सस्कत-प्राकत का भी उसका प्राव अनुमानित किया जा म कता है। मदुरै प्रभाव साथ में लेकर । तत्कालीन साहित्य, शिलालेखो आदि स्थान केरल से बहुत दूर नहीं है।
आदि पर यह प्रभाव भासित होता है । "तमिल के साथ सातवी सदी मे चीनी यात्री ह्वेनसाग भारत की संस्कृत-प्राकृत सकलन से स्वतंत्र केरलीय भाषा का यात्रा पर प्राया था। उसने यह लिखा है कि दक्षिण प्राप-विकास लगभग नवम-दशम शती में परिलक्षित भारत में उसने दिगम्बरो को बड़ी संख्या में देखा। कन्या- होता है।"