Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 122
________________ १२, वर्ष ४५, कि०४ अनेकान्त अचेतन है, उसमें भला-बुरा करने की क्षमता नहीं है, वह उन्होने देखा कि उनकी माता का पिता (नाना) अपनी पत्नी पुण्य फल कैसे प्रदान कर सकती है ?" मुनि ने उत्तर के वियोग मे दुखी होकर पचाग्नि तप कर रहा है। उसके दिया-"प्रतिमा अचेतन अवश्य है किंतु राग-द्वेष से रहित चारो ओर आग जल रही थी और ऊपर से तेज सूरज को है, शस्त्र-अलंकार आदि से भी रहित है और शुभ भावो धूप चमक रही थी। पार्श्व ने उसे नमस्कार नहीं किया। को दर्शाती है । उसका दर्शन करने वाले के भाव शुद्ध होते इससे वह कुढ़ गया। बग्मती आग मे लकड़ी डालने के हैं तथा शुभ भावों के कारण पुण्य होता ही है।" राजा लिए जैसे ही उसने फरसा उठाया कि पार्श्व बोल उठेको इस उत्तर से बड़ा संतोष हुआ। उसने अनेक जिन- "इसे मत काटो, इसमें जीव है। आग तपने से पुण्य नही मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण कराया। एक दिन उसने होता है । उससे जीव हिंसा होती है।" तापस नही माना। अपने मस्तक पर एक सफेद बाल देखा, उसे देख उसे उसने लकड़ी काट डाली और उसमे प्रविष्ट नाग-नागिन वैराग्य हो गया। पुत्र को राज्य देकर उसने तप की राह के दो टुकड़े हो गए। पार्श्वनाथ ने उस जोड़े को धर्म का अपनाई । तीर्थंकर कर्मबंध में सहायक सोलहकारण भाव- उपदेश दिया (णमोकार मत्र सुनाया) ताकि उनको आत्मा नाओं का चिंतन करते हुए उसने घोर तप किया। अन्त को शांति मिले । इस दृष्य के कारण कमठ के जीव तापस में, आनन्द मुनि एक वन मे ध्यानस्थ हुए। उसी वन में महीपाल को वहाँ एकत्र जन-समुदाय के सामने बहुत नीचा कमठ का जीव सिंह के रूप मे जम्मा था। वह प्रकट हुग्रा देखना पड़ा। उसने मन ही मन पाश्वं से बदला लेने की और उसने मुनि का कंठ पकड़ कर उसका प्राणांत कर ठान ली। आचार्य गुणभद्र ने पार्वनाथ का एक और नाम दिया। आनंद मुनि अच्यूत स्वर्ग के प्राणत नाम मे विमान सुभोमकूमार भी दिया है। में अहमिंद्र देव हुए। पार्श्वनाथ जब तीस वर्ष के हुए, तब अयोध्या के राजा स्वर्ग की अतिशय सुखपूर्ण दीर्घ आयु पूर्ण करने के जयसेन ने एक दूत को भेंट आदि के माप अश्नसेन और बाद प्राणत विमान के इन्द्र वाराणसी के काश्यपगोत्री पार्श्वनाथ के पास यह सदेश देकर भेजा कि कुमार का राजा विश्वसेन की रानी ब्राह्मीदेवी के गर्भ में आए। विवाह उसकी पुत्री के साथ कर देने का उसका प्रस्ताव रानी ने उस समय सोलह स्वप्न देखे जिन का फल राजा स्वीकार कर लिया जाए। दूत ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने यह बताया कि वे पूजनीय पुत्र को जन्म देगी। समय की जन्मभूमि अयोध्या की महिमा का वर्णन किया । पर रानी ने पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम पाश्वनाथ आदिनाथ का नाम सुनकर पार्वनाथ के सामने प्रथम रखा गया। वे उग्रवंश में जन्मे थे। प्रसिद्ध इतिहासकार तीर्थकर की महान तपस्या, अद्भुत त्याग और यशस्वी डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने विभिन्न स्रोतों के आधार पर जीवन का चित्र सामने आ गया। उन्होंने अवधिज्ञान से यह मत व्यक्त किया है कि पार्श्वनाथ उरगवशी थे। उन्होंने यह जाना कि वे तो तीर्थकर होने की क्षमता प्राप्त कर लिखा है कि महाभारत युद्ध के बाद कोरवो और पांडवों चुके हैं। इसलिए उन्होंने विवाह का प्रस्ताव अस्वीकार के राज्य नष्ट हो गए और उनके स्थान पर नाग जाति के कर दिया। वैराग्य हो जाने के कारण वे मुनि बन गये । राजाओं के राज्य उदित हुए। वाराणसी का उरगवशी एक दम नग्न, हाथ मे लकड़ी का कमडलु और मोर के राज्य भी इसी प्रकार के शक्तिशाली राज्यों में से एक था। सुकोमल पंखों को एक पिच्छी। उन्होंने उपदेश देने से वैदिक धारा के ग्रंथों मे इन सत्ताओं का उल्लेख शायद पहले चार मास तक कठोर तपस्या की। इसलिए नहीं मिलता कि वे इस धारा की अनुयायी नहीं एक दिन पार्श्वनाथ देवदारु के एक वृक्ष के नीचे ध्यानथीं। केरल मे भी उस समय नाग जाति प्रबल थी। उसको मग्न थे कि उस समय तापस महीपाल, जो मरकर अब अपनी शासन व्यवस्था थी। शम्बर देव के रूप में उत्पन्न हुआ था, उधर से अपने पार्श्वनाथ जब सोलह बर्ष के हुए तब एक दिन वे विमान से कही जा रहा था। जैसे ही उसका विमान क्रीड़ा के लिए अपनी सेना के साथ नगर के बाहर निकले। पार्श्वनाथ के ऊपर आया कि वह रुक गया। शम्बर ने

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