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असंयत-समकित सत्-आचरण रहित नहीं होता
D श्री जवाहरलाल मोतोलाल जैन, भोण्डर
प्रश्न-अभक्ष्य भोक्ता के सम्यक्त्व हो सकता है या व्यसन त्याग अनियमत: (नियम लिए बिना ही) तथा नहीं ? इसी तरह असयत समकिती के कुछ आचरण होते सातिचार (सदोष) पलते हैं । मातिचार व अनियमत: भी हैं या नहीं?
पालता इसलिए है कि सम्यक्त्वी तो सदा आगे बढ़ने की उत्तर-यद्यपि प्रायः सभी गृहस्थाचार प्रतिपादक चटापटी से युक्त रहता है। अतः सदा वह आगे के अभ्यास शास्त्रों में अभक्ष्य का त्याग पचम गुणस्थान में ही बताया में प्रवृत्ति की बुद्धि रखता है कहा भी है-- है। इतना तक भी देखिए --प्रायः सभी शास्त्रो मे अष्ट- हे अव्रत परि जगत तें, विरकित रूप रहात ॥१८१६ मलगुण का पालन तथा सप्तव्य न का त्याग करने के दोहा-नहिं चाहैं अव्रत दशा, चाहे वन-विधान । लिए भो प्रथम प्रतिमाधारी को ही (यानी पंचम गुणस्था- मन में मुनिवर की लगन, सो नर सम्यकवान ॥१८१७ दो. वर्ती को ही) कहा है।
[दौलतरामकृत क्रियाकोश] यहां इतना विशेष है कि जैसे रात्रि भोजन त्याग अव्रती तो है, पर जगत से विरक्त रहता है। वह छठी प्रतिमा में विहित है, यहा तक कि छठी प्रतिमा का अवत होता हुआ भी अव्रत दशा नहीं चाहता, वह व्रतनाम भी रात्रि मुक्ति त्याग है। तथापि इससे पूर्व भी विधान चाहता है। उसमें मुनिव्रत पाने की लगन बनी प्रथम प्रतिमा वाला भी रात्रिभोजन का त्यागी होता है। रहती है। ऐसा जीव सम्यग्दृष्टि होता है । उसके मलगुणो [कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ३२८ टीका तथा व० श्रा० ३१४ व व्यसन त्याग का पालन सातिचार-सदोष होने से ही वह तथा सावयधम्मदोहा गा० ३७ तबोलोसहि जलु ... ... प्रथम प्रतिमा का धारी नहीं कहला सकता। जैसे कि इत्यादि शब्द वाली गाथा] वमेव सामायिक प्रतिमा में पहली प्रतिमा में पांच अणुव्रतों की प्रवृत्ति तो सम्भवती सामायिक को बात है, पर द्वितीय प्रतिमाधारी भी सामा- है, पर इनके अतिचार दूर करता नहीं, इसलिए व्रत यिक करता है। प्रोषधोपवास चौथी प्रतिमा का नाम तथा प्रतिमा नाम नही पाता। [रा० वा० ७/२०/५५८ तथा काम कहा, परन्तु व्रत प्रतिमा वाला भी "पर्ण चतुष्टय चारित्र हाहुड़ (जयचन्द जी २३१] । माहि पाप तजि प्रोषध धरिये" (छह ढाला) इस कथन अब असंयत समकिती के सातिचार अष्टमूल पालन के अनुसार प्रोषध यथा-शक्ति करता ही है। इसी प्रकार व सप्तब्यसन त्याग को क्या दशा क्वचित् कदाचित हो यद्यपि प्रायः प्रथम प्रतिमा मे ही अष्टमूल पालन व सप्त सकती है ? उसके लिए निम्न प्रकरण द्रष्टव्य हैं.-प्रथम व्यसन त्याग तथा एवमेव अभक्ष्य-भक्षण-त्याग शास्त्रो में प्रतिमा के प्रकरण में कहा है किलिखा है तथापि सातिचार व अनियमत: ये सब सम्यक्त्वी ननु साक्षान्मकारादित्रयं जैनों न भक्षयेत् । भी पालता है। प्रथम प्रतिमा मे सप्तव्यमन त्याग निरति- तस्य किं वर्जनं न स्यादसिद्ध सिडसाधनात् ॥ पार व अष्टमूलगुण पालन निरतिचार आवश्यक है मैवं यस्मादतिचाराः सन्ति तत्रापि केचन । [सा० ध० ३/७-८] व नियमतः पालन आवश्यक है। अनाचारसमाः नूनं त्याज्याः धर्माथिभिः स्फुटम् ।। इतना ही नहीं प्रथम प्रतिमा वाला इन दोनों का मन तभेवा: सन्ति बहवः मादृशां वागगोचराः ।....... वचन काय से पालन करता है। [क्रियाकोष १८३२]
लाटी संहिता १/परन्तु असंयत सम्यक्त्वो के अष्टमूलगुण पालन व सप्त अर्थ-"कदाचित् यहां पर कोई यह शंका करे कि