Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 139
________________ जो हमें पसम्बन आया २६ "तए णं सा रेवई गाहावइणी मत्ता लुलिया विइण- तरह लोक-प्रिय होगा।' आचार्य श्री तुलसी ने कहा था केसी उत्तरिज्जयं विकड्ढमारणी २ जेणेव पोसहसाला कि 'स्थायीमल्य प्राप्त करेगा....... और पं० जगन्मोहन जेणेव महासवए समणोवासए तेरणेब उवागच्छा, २ ता लाल शास्त्री ने इममे 'जैन-मान्यताओं का पग-पग पर मोहम्माय जणणाई सिगरिहाई इत्थिभावाई उववंसेमारणो दर्शन किया। • महासययं समणोवासयं एवं वयासी। 'हं भो महासयया सो हमें इसमें ऐतराज न होगा। यदि उक्त आचार्यों समणोवासया, धम्मकामया पुण्णकामया सग्गकामया मोक्ख- व मनीषियो को मम्मतियाँ (उक्त तीर्थकर के मात्र पृष्ठ कामया धम्मकंखिया ४, धम्मपिवासिया ४, किणं तमं. २४-२५ की ही) भाषा, भावभगिमा, चेष्टा आदि के देवाणुप्पिया धम्मेण वा पुण्णेग वा सग्गेण वा मोक्खेण वा प्रांजल होने की पुष्टि मे लिवकर मंगा, तोथंङ्कर मे छाप जणं तुम मए सद्धि उरालाइ जाव भुजमारणे नो विहरसि?" दी जाय-हम उन पर भी विचार करेगे । -२/८/२४६ हमारी समझ से तो उक्त महामनीषी हो क्या ? कोई हमारे चार्यों ने नारियों के विषय मे वैराग्य भी दिगम्बर, श्वेताम्बर साधु-साध्वी श्रावक और श्राविका उत्पन्न कराने हे। वस्तुस्थिति दर्शाने निमित्त उनके आगम परिप्रेक्ष्य में ही नहीं, अपितु साधारण रूप में भी निंद्य अंगो का वर्णन मात्र किया है, जिसे परम्परित ऐसो सभोग चेष्टा दर्शक पृणित भाषा को कही, कभी भी जैनाचार्यों द्वारा वैराग्य उत्पादन की दृष्टि से मान्य किया प्रशस्त नही कहेंगे । क्या, उन्हे अपने निर्मल ब्रह्मचर्य में जाता रहा है उनमे कही भी खुले और बीभत्स रूप में दोष लगाना है जो ऐमी महनी भल करे। हाँ, तीर्थङ्कर सभोग-चेष्टा को नहीं दर्शाया गया जमा तीर्थंकर के उक्त नामक जैमी पत्रिका में इसका प्रकाशन लज्जास्पद और अक मे । इसे पढ़कर तो विषयलोलुपयो को वैराग्य और अकीति का सूचक अवश्य है। महाशतक के दृढत्व के पाठ के स्थान पर सभोग के ना. इस उपन्यास के 'रामचरित मानस' सम लोकप्रिय नए आयाम ही मिलेंगे और उनकी कामोत्तेजना बढने की होने की कल्पना 'मानम' का घो' अपमान करना होगा, किसान मानन कहाँ वह धार्मिक अपूर्व ग्रन्थ और कहाँ मिथ्या कल्पनाओं भाषा नही 'लीथंकर' का अपमान है। की अश्लील यह उडान? इसमे जन-मान्यताओं के पगप्रारम्भ मे सपादक तीर्थंकर ने लिखा है-'खल पग दर्शन होने की कल्पना भी भ्रान्त है। हाँ, यह अश्लील रहे : यह वही उपन्यास है, जिसे लेकर आचार्य मुनि श्री जगत मे स्थायी मूल्य प्राप्त करने की क्षमता रखता हो तो विद्यानन्द जी ने कहा था-यह 'रामवरित-मानस' को बात दूसरी है । पाठक उक्त 'तीर्थ दूर पढ़ें और विचारें। पृ० २८ का शेषाश) अकल्याण कर भयकर पाप का सचय तो नहीं कर लिया। निन्दा, स्वयं की प्रशंसा से बचें। देव, शास्त्र, गूरु की जरा सोचे-विचारें, अपने भविष्य की चिंता करें कहीं ऐसा विनय करे, अपनी नाशवान चचला लक्ष्मी को परोपकार न हो "बासी टकडे खाने है, कल उपवास करेंगे” पूर्व विद्या प्रचार, शास्त्री के उद्धार, समाज और राष्ट्र के हित सचित पण्य से प्राप्त सामग्री का उपभोग कर अागामी मे व्यय कर, अपने चरत्र को समानकर वोरोचित, जीवन मे पुण्य विहीन होकर विपदा और दरिद्रता का क्षत्रियोवित, दोषों का निवारण कर, उत्थान का मार्ग भार ढोने की तैयारी में है। "जैसी करनी वैसी भरनी, अपनाएं व अपने को आदर्श बनाकर वीर प्रभु की संतान निश्चय नही तो करकर देख ।" कहलाने का गौरव प्राप्त कर समाज व राष्ट्र का कल्याण हमारा कर्तव्य है कि समय रहते चेन जायें, झूठे करें। हम भी सुगन्धित पुष्प की अपनी सुगान्ध फैलाकर प्रशमा के प्रपच मे अपने ऐश्वर्य, शक्ति को लुटाकर दरिद्री विश्व को सुगन्धित करें, प्रभु हमे सन्मति प्रदान करें। बनने की अपेक्षा, वीतराग जिनेन्द्र भगवान के मार्ग पर - भगवान महावीर अहिंसा केन्द्र चलकर स्व व पर के कल्याण की ओर अग्रसर हो, पर की __ अहिंसा स्थल, महरौली

Loading...

Page Navigation
1 ... 137 138 139 140 141 142 143 144