Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 134
________________ २४ वर्ष ४५, कि०४ प्रनेकान्त पृष्ठ पक्ति १७५ १७७ १८२ १८६ १८७ १८६ १८६ १९० १९१ १६१ अशुद्ध २८ चाहिए, उपरिम चाहिए, क्योंकि उपरिम होदि । गयत्थमेदं सुत्तं । होदि । ३८३ संपहि $ ३८३ गयत्थमेदं सुत्तं । संपहि इसलिए इष्ट होने से ध्यान की उत्पत्ति नहीं अत. ध्यान की उत्पत्ति नहीं हो सकती, हो सकती। ऐसा अभीष्ट है। द्वारा योग निरोध रूप द्वारा तया योगनिरोधरूप मोक्ष का अभाव मानने पर मोक्षप्रक्रिया का पह मोक्ष प्रक्रिया का अवतार असमंजस अवतार करना असमंजस नहीं ठहरेगा। (असगत या अनुचित) नही है। भी भ्रष्ट पुरुषार्थ को भी पुरुषार्थ से भ्रष्ट होने यानी पुरुषार्थ से भटकने को नाना रूप स्थिति नाना रूप प्रकृति, स्थिति चरिमोत्तम चरमोत्तमउत्तम चरित्र और उत्तम तथा चरम उत्तम नितीति निर्वातीति मोहनीय-क्षयं मोहनीये क्षयं तथा यथोक्त कर्मों के क्षय में हेतुभूत कारणों __तथा कर्मों के क्षय मे हेतु रूप यथोक्त के द्वारा संसार कारणों द्वारा पूर्वोपाजित कर्मों का क्षपण करने वाले के संसार २४ पुग्दलों पुद्गलों कही जाती है। मानी जाती है। २२-२४ क्योकि सांसारिक सुख की प्राप्ति में ....." क्योंकि मुक्त जीव क्रियावान् है जबकि आकुलता से रहित है ॥३२॥ सुसुप्तावस्था में कोई क्रिया नहीं होती। तथैव मुक्त जीव के सुख का अतिशय (अधिकता) है। जबकि सुषुप्तावस्था में सुख का अतिशय नही है सुषुप्तावस्था मे तो लेपामात्र भी सुख का अनुभव नही होता। [यहाँ संसार सुख तथा मोक्षसुख की तुलना न होकर निद्रावस्था व मोक्षा वस्था को तुलना है। उक्त संशोधनो मे से विज्ञ सुधीजन जो उचित लगे उसे ग्रहण कर लें। -जवाहरलाल जैन १६२ १६२ १२४

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