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जैन एवं बौद्ध साहित्य में श्रमण परम्परा
धमणों के विभाग--प्रवचनसारोद्धार में श्रमणों के लिए मयूर के पंखों से निर्मित पिच्छिका और दूसरा पांच विमाग बतलाए गये हैं :
शौचादि के लिए कमण्डलु । शरीर से बिलकुल नग्न रहते १. निर्ग्रन्थ - जैन मुनि
हैं और श्रावक के घर पर ही दिन मे एक बार खड़े होकर २. शाक्य बौद्ध भिक्षु
हाथों की अंजुलि को पात्र का रूप देकर भोजन करते हैं, ३. तापस
जटाधारी, वनवासी, तपस्वी किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनगार पांच महावतों का ४. गेरूक
त्रिदण्डी परिव्राजक पालन करते ए भी वस्त्र, पात्र रखते हैं। अनगारों की ५. आजीवक
गोशाल के शिष्य । इस प्रवृत्तिभेद के कारण ही जैन सम्प्रदाय दो भागों में चारित्र क्षधमण-पाश्वस्थ, अवसन्न, संसक्त, विभाजित हो गया और वे विभाग दिगम्बर और श्वेताकुशील और मगचरित्र श्रमण चारित्र क्षुद्र श्रमण हैं१५१ म्बर कहलाए"।
मवन्त-सर्व कल्याणों को प्राप्त हुए भदन्त कहलाते नामादि की अपेक्षा श्रमण के भेद-नाम, स्थापन्न, द्रव्य और भावनिक्षेप की अपेक्षा श्रमण चार प्रकार है
दान्त-पाच इन्द्रियों को निग्रह करने वाले दान्त के होते हे"।-नाम-श्रमण मात्र को नामषमण कहते हैं लेप आदि प्रतिमाओ मे श्रमण को आकृति स्थापना षमण
कहलाते है।
पति-उपशमक और क्षपक श्रेणी पर आरोहण है। गुणरहित वैषग्रहण करने वाले द्रव्य श्रमण हैं और
करने वाले यति कहलाते है"। मूल गुण -उत्तरगुणों के अनुष्ठान में कुशल भावयुक्त
दिगम्बर-दिशायें ही जिनके अम्बर-वस्त्र है। भावश्रमण है"। श्रमण के पर्यायवाचो शब्द-जैन ग्रन्थों में श्रमण
अचेलक-वसुनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्ती ने "अचेलकत्व के अनेक पर्यायवाची नाम मिलते हैं, जो उनकी भिन्न-२
नाग्न्यमिति यावत्" कहकर नग्न अवस्था का नाम अचेविशेषताओ को सूचित करते हैं। इनका सक्षिप्त लक्षण
लकत्व बतलाया है" । श्वेताम्बर परम्परा में अचेलक्य के इस प्रकार है
विषय में विवाद है, क्योकि उनके यहां साधु वस्त्र धारण संयत-असयत रूप हिंसा आदि को जानकर और करते हैं। श्रद्धा न करके उनसे जो अलग होता है अर्थात् उनका
निर्ग्रन्थ-वस्त्र आदि परिग्रह से रहित । त्याग करता है, उस सम्यक् युत को सयत कहते है।
मण्ड-जो केशलुचन करता है और जो इन्द्रियो के ऋषि-जो सब पापो को नष्ट करते हैं अथवा सात ।
विषय का अपनयन करता है, उन्हें जीत लेता है, उसे प्रकार की ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं, वे ऋषि है।
मुण्ड कहा जाता है।
बहत-समस्त शास्त्र का पारगामी । मनि-जो स्व-पर के अर्थ की सिद्धि को मानते हैं
मिक्ष-भिक्षाशील साधु । पचास्तिकाय में कहा है जानते हैं, वे मुनि हैं"।
जिसे सर्व द्रव्यों के प्रति राग, द्वेष या मोह नहीं है, उस साधु-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की जो
सम सुख-दुःख भिक्षु को शुभ और अशुभकर्म आस्रावत साधना करते है, वे साधु है"। पद्मप्रभमलधारिदेव ने साधु को आसन्नभव्य जीव तथा अत्यासन्न भव्य जीव कहा है।
नही होते"। सूत्रकृतांग मे भिक्षु के १४ नाम कहे हुए
हैं-समण माहन, क्षान्त, दान्त गुप्त, मुत, ऋषि, मुनि, वीतराग-जिनका राग विनष्ट हो गया है"। कृती (परमार्थ पण्डित), विद्वान, भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी
अनगार-नही है अगार गृह आदि जिनके सर्व- और चरणकरण पारविद" । परिग्रह से रहित मनुष्य अनगार है। अनगार पांच महा. असंयम जगप्सक-प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम व्रतों का पालक होता है। दिगम्बर परम्परा के अनगार में लगे हुए श्रमण"। अपने पास केवल दो उपकरण रखते हैं- एक जीवरक्षा के यथाजातरूपधर-व्यवहार से नग्नत्व, निश्चय से