Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 117
________________ जन एवं बौद्ध साहिाय में श्रमण परम्परा में भी अनेक बार प्रयोग हुआ है। इसके अनेक प्रकरण खण्डाखण्डी करके चलते हैं, सुनते हैं श्रमण गौतम अमुक बौद्ध साहित्य में विद्यमान हैं ग्राम या निगम मे आवेगा। वे प्रश्न तैयार करते हैं, इन जब सावत्थी में अग्गिक भारद्वाज यज्ञाग्नि को प्रज्व- प्रश्नों को हम श्रमण गोतम के पास जाकर पूछेगे, यदि लित कर उसमे आहुतिया दे रहे थे, उसी समय बुद्ध वह ऐसा उत्तर देगा तो हम इस प्रकार वाद रोपेंगे"। भिक्षाटन करते हुए उसके यज्ञस्थल के निकट पहुंचे। उलि गृहपति ने कहा था-जैसे बलवान पुरुष लम्बे अग्गिक भारद्वाज उन्हें दूर से ही देकर चिल्लाया--अरे बाल वाली भेड को बालों से पकड कर निकाले डुलावे, मडिए ! भिक्ष, वृषल, वही खडा रह (तत्र एव मुण्डक, उसी प्रकार में श्रमण गौतम के वाद को निकालूंगा, घुमातत्र एव समणक, तत्र एव वमलक तहीति), बुद्ध ने ऊगा, इलाऊंगा। शान्त भाव मे उसे समझाया कि बसलक वह दुष्ट मनुष्य गतम बुद्ध के समय वौद्ध भिक्षु अपना परिचय पूछा है जो धर्म और सदाचार के नियमो का पालन नहीं करता, जाने 7 अपने को श्रमण" करते थे अथवा अधिक स्पष्टता मेरे जैसा साधु बसलक नहीं होता। भारद्वाज ब्राह्मण के लिा "शावक्पपूत्रीय" शब्द उसके पहले और जोड देते यज्ञ में आहुतियां देने के बाद आइति का अवशिष्टघृन देने थे। जिससे अन्य सम्प्रदायो में भेद हो सके। बुद्ध को के लिए कि पी व्यक्ति को ढूंढ रहा था, उम समय बुद्ध अनेक बार महाश्रमण कहा गया है। अपने सिर को ढके हए एक वक्ष के नीचे बैठे थे। पैरों जिन और वीर शब्द भी जो मौलिक रूप में भगवान को आहट सुनकर उन्होंने सिर पर से वस्त्र हटा लिया महावीर या पूर्वकालीन जैन महात्माओ के लिए प्रयोग और ब्राह्मण को जाते देखा । ब्राह्मण उसका मुण्डित सिर किए जाते थे, पालि साहित्य मे बुद्ध के विशेषण बन गए। देखते ही अति ऋद्ध हुगा और चिल्ला पड़ा-अरे तू मुंडिया गौतमबद्ध के समकालीन श्रमण-बुद्ध के समहै। वह लौटने ही वाला था, पर फिर वह सोचकर कि कालीन छ: प्रमुख सम्प्रदाय थे"-पूरण कस्सप, मक्खलि कभी-कभी ब्राह्मण भी सिर मुड़ा लेते हैं, बुद्ध की ओर गोसाल, पकूध कच्चायन, अजितकेश कम्बल, निगण्ठनातमडा और उनकी जाति पूछी। बुद्ध ने उत्तर दिया-मेंन पत और संजयवेलटिठपत। इनकी मान्यताओं का विवरण ब्राह्मण हूं न क्षत्रिय हूं, न वैश्य हूं, मैं एक संन्यासी हू, बोद्ध साहित्य में अनेक प्रसगो मे हआ है। दीघनिकाय के जो कुछ नहीं चाहता। मुझ दान देने का महान् फल मामन्नफलसुत्त मे बामण्य के फल का निरूपण है। वहां होगा। इन छ श्रमणों से परिचय प्राप्त होता है, जो इस प्रकार एक बार शाक्यों के देश मे ब्राह्मणो की एक सभा हो हैरही थी, उस समय बुद्ध सभागृह की ओर जाने लगे। १. पूरण कस्सप-पूरणकस्सप के द्वारा पुण्य-पाप ब्राह्मणों ने कहा- कौन है ये मुडिय श्रमण ? ये क्या का खंडन किया गया है। किसी अच्छे कार्य को करने से जाने सभा के नियम (के च मुण्डका समणका के घे सभा पुण्य होता है और बुरे कार्य से पाप होता है, वे ऐसा नही धम्म जानिस्सन्ति") परन्तु बुद्ध चुपचाप सभा भवन में मानते हैं। दान, दम, सयम, तप, परोपकार आदि कार्यों चले गए। में कोई पुण्य नही है, हिमा, अठ, चोरी, परस्त्रीगमन में बुद्ध के साथ प्रायः श्रमणविशेषण लगता था। उनके कोई पाप नहीं है। कोई व्यक्ति अपने आप कोई क्रिया समय श्रमण और ब्राह्मणों मे अनेक सम्प्रदाय थे, जो आपस नहीं करता, अतः अक्रिय होने से उसे पाप-पुण्य भी नहीं मे वाद किया करते थे। बुद्ध के समकालिक वातस्यायन होता । यह पूरणकस्स का मत अक्रियावाद है। नामक परिवाजक ने अपने समय के त.किकों को सम्बन्ध २. मक्खलि गोसाल-मक्खलि गोसाल देववादी से कहा था-मैं देखता हं, बाल की खाल निकालने वाले थे। कर्म करने में उनका विश्वास नहीं था। वे अकर्मण्यदूसरों से वाद-विवाद करने मे सफल, निपुण कोई कोई तावादी थे, उसकी शुद्धि का कोई कारण नही है। प्राणी क्षत्रिय पंडित मानों प्रजा में स्थित तत्व से दृष्टिगत को स्वयं या दूसरे की शक्ति से कुछ नही कर सकता, उसमें

Loading...

Page Navigation
1 ... 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144