Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 118
________________ ८, ४५, कि०४ बल नहीं है, वीर्य और पराक्रम नहीं है। सभी प्राणी थे-१. जल के व्यवहार का वारण करना। २ सभी निबंल और असहाय हैं। भाग्य और संयोग के फेर में पापों का वारण करना, ३. सभ पापों का वारण करने से पड़कर सख या दुख का अनुभव करते हैं। यही मक्ख लि- पाप रहित होना। ४. सभी पापो के वारण करने मे लगा गोसाल का नियतिवाद है । रहना। ३. प्रकुध कच्चायन-ये घोर अकृतवादी थे। भगवान पार्श्वनाथ के चातुर्याम का यह प्रारूप है, इनके अनुसार पृथवी, जल, तेज, वायु, सुख, दुख और जो निग्रन्थ नातपुत्त की मान्यता से जोडा गया है। इसका जीवन ये मब अकृत, अनिर्मित और अल है । ये कभी न तात्पर्य यह है कि बुद्ध के समय भगवान पार्श्वनाथ क विकार को प्राप्त होते है और न परस्पर हानि पहुचाते अनुयायी थे। हैं। यहां न कोई मारने वाला है, न कोई मरने वाला, न ६. संजयवेलट्टिपुत्त-सजय का मत सन्देह बाद का कोई सुनने वाला है, न कोई सुनाने वाला। यही इनका प्रतिपादन करता है ये किसी भी तत्व जैसे -परलाक, अकृतवाद है। देवता, पुण्यापुण्य के विषय में कोई निधिवत मत का प्रति४. अजित केश कम्बल-ये भौतिकवादी थे। पादन नहीं करते। उनका कहना है कि मैंने न परलोक इनके मतानुसार इम ससार मे किसी वस्तु का अस्तित्व देखा है, न देवता आदि को, तब कैसे कह दूं कि उनका नहीं है। पाप-पुन्य का न कोई फल है, न स्वर्गाद की अस्तित्व है? हो सकता है, उनका अस्तित्व हो भी। इसके कोई रचना है। मरने के बाद जिन चार महाभूतो से बार महाभूता स विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता । तथागत मरने के बाद व्यक्ति निर्मित हुआ है, उन्ही में विलीन हो जाता है। 1 हो जाता है। होते हैं, यह भी मैं नहीं जानता । आत्मा की सत्ता मानना व्यर्थ है। उपर्युक्त श्रमणो मे आज निगंठनातपुत्त का ही मत ५. निगण्ठनातपुत्त-वे विचारक जैन धर्म के । बच पाया है। अन्तिम तीर्थकर थे। वे चार प्रकार के संवर को मानते __ सन्दर्भ-सूची १. पद्मचरित ४/९१-१.२. २. वही, ११/१६६-२०१ १५. भगवती आराधना-विजयोदया टीका-३४१. ३. वही, १०६/८०-८३. ४. वही, १.६/८४. १६. मूलाचार १००३. १७. वहो १००३ तात्पर्यवत्ति । ५. ब्राह्मणे ब्रह्मचर्यतः । वही ६/०६. १८. भगवती आराधना-विजयादया-१५४. ६. येषां च विरोध: शाश्वतिः (अष्टाध्यायी २/४/६) पर १६. मूलाचार-आचारवृत्ति-५६७. २०. वही ८८८. महाभाष्य-येषां च इत्यस्यावकाश: मार्जारमूषणं श्रमण २१. वही, २२. नियमसार-तात्पर्यवत्ति-६. श्रमणमाह्मण मित्यादौ, ज्ञेयः । २३. मूलाचार ८८८ (आचारवृत्ति)। ७. रागकोपानुपत्लु चित्त: समण इत्युच्यते-- भगवती २४ धर्मामृत (अनगार)-५० कैलाशचन्द्र शास्त्री एव ___ आराधना (विजयोदया टीका १३४)। ___डा, ज्योतिप्रसाद जैन द्वारा लिखित प्रधान सम्पा० । ८. नेरूक्तकावदन्ति सममणो समणो इति । समणस्सभावो २५. मन्दताः सर्व कल्याण प्राप्तवन्तः । मलाचार ८८८ सामण्णं तच्च कि? समानता चारित्रं । (आचारवृत्ति)। ९. प्रवचनसार-९२. २६. दान्ता:पचेन्द्रियाणां निग्रहपरा.-वही ८८८ (आचा०) १०. वही, तत्वदीपिका टीका। ११. मुलाचार, १.०२. २७. यतय उपशमक क्षपक श्रण्यारूढ़ा: ।। प्रवचनसार१२. सहमनसाशोभनेन निदान परिणाम-पापरहितेन च ५० (तात्पर्यवृत्ति)। चैतसा वर्चत इति समनसः । स्थानांग टीका प्र. २६८. २८. मूलाचार-पाचारवृत्ति-३०. १३. सूत्र कांग १/१६/२. २६. वस्त्रादिपूरिग्रहरहितत्वेन निर्ग्रन्थः । प्रवचनसार-- १४. दशवैकलिक (जिनदासचूणि)पृ. १५१, उत्त.१६/१. तात्पर्यत्ति-२६६.

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