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१४, वर्ष ४५, कि०३
अनेकान्त
मूलतः अनीश्वरवादी दर्शन हैं, परन्तु परवर्ती काल में अभाव में वह सृष्टि कर ही नहीं सकता। इसी तरह सांख्यदर्शन ईश्वरवादी दर्शन बन गया। सांख्यदर्शन को अन्य तर्कों के द्वारा अनिरुद्ध सांख्यसूत्रों की वृत्ति करते ईश्वरवादी दर्शन बनाने मे सर्वप्रमुख भूमिका आचार्य हए सांख्य को अनीश्वरवादी सिद्ध करते हैं। जैनदर्शन मे विज्ञानभिक्षु की है। सांख्यदर्शन के उपलब्ध सर्वप्राचीन भी कुछ इसी तरह की युक्तियों के द्वारा जगत्कर्ता ईश्वर प्रन्थ सांख्यकारिका तथा उसकी सभी प्राचीन टीकाओं में का खण्डन किया गया है। कही भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नही किया गया इसके विपरीत आचार्य विज्ञानभिक्षु ने सांख्यप्रवचनहै। गौडपादभाष्य आदि टीकाओं में सृष्टिकर्ता ईश्वर के भाष्य में सांख्य शास्त्र के उपदेश कपिलमुनि को ईश्वर अस्तित्व का खण्डन अवश्य मिलता है। श्रीबालगङ्गाधर का अवतार तथा ईश्वर को मोक्ष प्रदाता बतलाया है" तिलक का विचार है कि ईश्वर कृष्ण की ६१वीं कारिका
इस तरह इन्होंने सांख्य को निरीश्वरवादी-परम्परा में लुप्त हो गई है जिसकी रचना उन्होने गौडपादभाष्य के नया मोड दिया और कहा कि var मिति साटि आधार पर करते हए अनीश्वरवाद की स्थापना की है। प्रमाणों से न होने के कारण उसका अभाव नही माना ___ सांख्यकारिका की प्रसिद्ध टीका युक्तिदोपिका मे जा सकता। इसीलिए सांख्यसूत्र मे 'ईश्वरासिद्धे.' (१/ स्पष्ट शब्दों में प्रकृति की प्रवृत्ति में ईश्वरप्रेरणा का निषेध ६२) कहा है। 'ईश्वराभावात् (सा०प्र०भा०) १/६२) किया गया है। गौडपादकार भी ईश्वर को सृष्टि का नहीं, परन्तु विज्ञानभिक्ष का यह तर्क अनुचित है । किञ्च कारण मानने के मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं सांख्यसूत्र परवर्ती रचना है । अभी तक उसके कपिलमुनि कि ईश्वर जब निर्गुण है तो उससे सत्व आदि गुणों वाली प्रणीत होने की सिद्धि नहीं हो सकी है। वस्तुत: विज्ञान(सगुण) प्रजा की सृष्टि कैसे हो सकती है ? वाचस्पति भिक्ष का ईश्वर वेदान्त और योगदर्शन का मिला-जुला मिश्र का कहना है कि जगत् की सृष्टि या तो स्वार्थवश रूप है। सम्भव है या करुणावश । ईश्वर जब आप्तकाम है तो पहले बतलाया जा चुका है कि सांख्य दर्शन का अनुउसके स्वार्थ का कोई प्रश्न हो उपस्थित नहीं होता। गामी योगदर्शन कनेशादि से अपरामष्ट पुरुषतिशेष को करुणावश भी सृष्टि सम्भव नहीं है, क्योकि सृष्टि से पूर्व ईश्वर मानता है। योगदर्शन का यह ईश्वर सब प्रकार शरीर इन्द्रियादि के प्रभाव होने से दुःखभाव होगा फिर के बन्धनों से सर्वथा अछता है। इसमे निरतिशय उत्कृष्ट ईश्वर की करुणा कैसी? करुणाभाव तो दूसरो के दुःखो तत्त्वशाली बुद्धि रहती है जिससे यह ऐश्वर्यसम्पन्न माना के निवारण की इच्छा है । सृष्टि के पश्चात् प्राणियों को जता है। ज्ञान और ऐश्वर्य का प्रकृष्टतम रूप जिसमे दुःखी देखकर करुणा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष होगा। देखा जाता है वही नित्य ईश्वर है। प्रकृति पुरुष के किञ्च, करुणा से सृष्टि मानने पर उसे सभी को सुखी हो विवेकज्ञानपूर्वक मुक्त होसे वाले जीवन्मुक्त और विदेहउत्पन्न करना चाहिए, दुःखी नहीं। अत: अचेतन प्रकृति मुक्त ईश्वर नही है क्योकि वे पूर्व मे बन्धनयुक्त रहे है । की स्वतः प्रवृत्ति मानना ही उचित है।
किञ्च, यह ईश्वर अन्य पुरुषों (आत्माओ) से विशिष्ट वृत्तिकार अनिरुद्ध ने ईश्वरकर्तृत्व का खण्डन करते है। सामान्यपुरुष अकर्ता है, परन्तु ईश्वर अकर्ता नही है। हुए कहा है कि ईश्वर की सिद्धि करने वाला कोई प्रमाण इस तरह योगदर्शन सांख्यानुगामी होकर भी पुरुषविशेष नही है। ईश्वर के जगत्कर्तृत्व में निमित्तकारणता का के रूप में ईश्वर को स्वीकार करता है। वस्तुतः बुद्धि खण्डन करते हुए वे कहते हैं कि ईश्वर के न तो सशरीरो आदि प्रकृति के धर्म हैं तथा बुढ्यादि के रहने पर रहने होने पर और न अशरीरी होने पर सृष्टि सम्भव है"। वाले ऐश्वर्यादि गुणो का धारक पुरुषविशेष ईश्वर ऐश्वर्य यदि ईश्वर स्वतन्त्र होकर भी जीवो के कर्मानुसार उनकी सम्पन्न कैसे हो सकता है? सुष्टि करता है तो उसकी आवश्यकता ही क्या है? न्यायकूमदचन्द्र" आदि जैन ग्रन्थो मे योगानुसारी क्योंकि वह कार्य कर्म से ही हो जायेगा। किञ्च राग के सांख्यदर्शन के इसी ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है।