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अशुद्ध ८४३ यवमध्यपप्ररूपणा
यवमध्य प्ररूपणा वेगस्स
वेदगस्स अंतोमुत्तणा
अंतोमुहत्तणा २३ प्रथम कृष्टि को
प्रथम संग्रह कृष्टि को माण
मायं बधगियराणं
बंधगियराणं ३ पच्छिमक्खधो
पच्छिमक्खंधो नोट :-(1) पृष्ठ ७६७ १र लिखित विशेषार्थ के अन्तर्गत निम्न ११ पंक्तियां पुनः देख लें--"समस्थिति में
प्रवर्तमान पर प्रकृतिरूप सक्रमण"......... . . (दृष्टान्त दिया । इसी प्रकार" नोट :-(i) पृष्ठ ३९८ पर पक्ति १८-१६ मे "पश्चात् नियम से गिरता है और मिथ्यात्वी हो जाता है।" इम
वाक्य का भी इस प्रकार सुधार करना चाहिए- पश्चात् वेदक सम्यक्त्वी, सम्यग्मिध्यात्वी हो अथवा मिथ्यात्वी हो जाता है। [कारण देखो-गा. १०३ पृ. ६३४-३५ तथाँ इसको जयध. टीका]
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पृ० १६ का शेषांश) इसके बाद ताकिक पद्धति से विकसित होने पर ने आत्ममीमांसा और ज्ञानमीमांसा की विस्तत एवं मम प्रत्यक्ष की उपर्युक्त परिभाषा मे भी परिवर्तन किये गये। तम विवेचना की है, जिससे सर्वज्ञता का सिद्धान्त स्थापित लोकव्यवहार तथा जनेतर धार्मिक-दार्शनिक परम्पराओं हुआ। से सामञ्जस्य बैठाने के लिए आचार्य अकलङ्क, जिनभद्र
उपर्युक्त से यह भी स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा
मे आरम्भ मे ज्ञानमीमांसा पर अधिक जोर दिया गया। आदि दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष के पुनः दो भेद किए-१. सां
ज्ञान सम्यक है या मिध्या, अथवा, ज्ञान प्रमाण है या व्यवहारिक प्रत्यक्ष और २. पारमार्थिक प्रत्यक्ष । और
अप्रमाण, इस विषय पर विस्तार से चिन्तन किया गया, दूसरा इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष से प्रत्यक्ष में स्थापित
और यही मूल आगमिक परम्परा है।। किया। परन्तु पारमार्थिक और सांख्यव्यवहारिक प्रत्यक्ष मे व्याप्त प्रत्यक्षलक्षण विचारणीय रहा? तार्किक युग की
परन्तु, ताकिक शैली के विकास के साथ-साथ प्रमाण
विषयक चिन्तन क्रमश: तर्क पद्धति पर किया जाने लगा। चरम अवस्था में विशद और निश्चयात्मक ज्ञान को भी
भिन्न-भिन्न दार्शनिक सिद्धान्तो की समीक्षा एवं स्वपक्ष प्रत्यक्ष मान लिया गया।
की स्थापना के फलस्वरूप प्रमारणमीमांसा का उत्तरोत्तर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कुन्दकुन्द मूलतः
विकास भी हुआ। दूसरे शब्दों मे, ज्ञानविषयक प्राचीन प्राध्यात्मिक तथा आगामक आचाय है, प्रमाणशास्त्रयुगनि चिन्तन को ही प्रमाणमीमांसीय व्याख्या प्रस्तुत की या नैयायिक नही। उनके साहित्य मे प्रमाण विषयक का चर्चा नहीं है। दूसरे शब्दों में, जैन परम्परा मे आचार्य
-प्राकृत एवं जैनागम विभाग कुन्दकुन्द तक प्रमाणमीमांसा का प्रवेश नहीं है। कुन्दकुन्द
संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी-२