Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 106
________________ ३२, वर्ष ४५, कि०३ अनेकान्त सकता है । और वह अवस्था चारित्र के धारण किये बिना आचार्यों ने यह भी कहा है-'अणियदगुणपज्जओध पर नही होती। जब कि आज परिपाटी ऐसी बनायी जा समओ........' । पुद्गलकर्म प्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन रही है कि कुछ एकन्ती बिना चारित्र पालन किए, युगपज्जानन् गच्छश्च पर-समय इति प्रतीयते'-"पुद्गलपरिग्रह की बढ़वारी मे रस लेते हुए, चतुर्थ-गुण स्थान में कर्मोदयेनजनिता ये नारकाधुपदेशा व्यपदेशा, संज्ञा पूर्वोक्तही पूर्ण स्व-समय में आने के स्वप्न देख, कुन्दकुन्द के निश्चयरत्नत्रयाभावात् तत्र यदा स्थितो भवत्ययं जीवस्तदा 'पुग्गलकम्मपदेसट्ठिय' जैसे कथन की अवहेलना कर रहे त जीवं पर-समयं जानीहि इति ।" हैं। उन्हें कुन्दकुन्द के 'चरित्तदंसपणाणट्ठिय जैसी त्रिमूर्ति इस प्रकार हम दोनों की बात अधुरी और चिन्तन का भी किचित् ध्यान नही। इन्हें पांचवे-छठे गुणस्थान का विषय ही बनी रह गई। विज्ञो को इस चर्चा मे से भी कोई प्रयोजन नही । खेद है, कि जिस मनुष्यगति में हमारी मदद करनी चाहिए कि हम कोरी चर्चा में ही संयम की विशेषता होनी चाहिए उस सयम (चारित्र) से स्व-समय की बात करें या स्व-समय को प्राप्त तीर्थंकरये मुंह मोड़ रहे हैं। जब कि इसमे आचार्यों ने श्रावक के अर्हन्तो वत् संयमाचरण के साथ उस और बढ़ने का प्रयत्न व्रत, प्रतिमाओं और महावतादि धारण करने का क्रम भी करें? जब कि आचार्यों ने समुदित रत्नत्रय को हो निर्धारित किया है। मोक्षमार्ग कहा है । तब ये कोरे सम्यग्दर्शन ध आत्मा देख वे बोले-अपेक्षा दृष्टि से यह कथन भी ठीक है। रहे हैं। –सम्पादक (पृ. २४ का शेषांश) अर्थ है आकाश जैसा-खाली । नग्न ही नहीं अपने को परिग्रह की वासना है उसका बाह्य त्याग निष्फल है। नग्न बना लिया, सबसे रहित । अगर बाहर का त्याग किया भी जाए तो भी यही ध्यान ऐसा जैन साधु होता है जो मोक्ष मार्ग पर गमन रखकर किया जाए कि वह भीतर के त्याग के लिए करता है। प्रबुद्ध और उपशांत होकर-एक साथ शात निमित्त बने । परन्तु लोग बाहर से तो छोड़ देते है भी और जागे हए भी। जितना जागरण उतना शांत, से छोड़ते नहीं। छोड़ने तक को पकड़ लेते है और त्याग साथ-साथ हैं। क्षणमात्र भी प्रमाद नहीं। का अहंकार आ जाता है । वास्तव मे भाव ही मुख्य लिंग है। द्रव्यलिंग परमार्थ जो देह आदि की ममता मे रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा मे नहीं है क्योकि भाव ही गुण-दोषो का कारण होता है। भाव ही असली बात है। क्रिया तो उसकी छाया है। लान है वही साधु भावलिगी है। भावलिंगी वही है जो भाव मे प्राप्त हुआ वह क्रिया मे आवेगा परन्तु जो जिसन धन छाड़ा क्योकि पकड हो नही रही। द्रव्यलिंगी आते ही नही। वह है जिसने धन छोड़। परन्तु पकड़ना न छोड़ा। और जो भाव में है वह क्रिया मे आवेगा, इसलिए कि भाव जिसने बाहर से भी नहीं छोड़ा वह तो कुलिंगी है। प्रधान है। लोग भाव की चिंता नही करते द्रव्य की चिता ध्यान का दिया जलाना है। अगर आत्मध्यान का दिया करते हैं। अब तो द्रव्य की भी चिता न रही मात्र द्रव्य जल गया तो सब कुछ मिल गया अन्यथा जैसे थे वैसे रह (धन) की चिता रह गयी। भावों को विशुद्धि के लिए गये। २८ मूल गुणों का पालन तो वह लक्षण रेखा है ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है जिसके भीतर जिसको लांघ गये तो व्यवहार मुनिपना भी नही रहेगा।

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