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श्री शान्तिनाथ चरित सम्बन्धी साहित्य
इस काव्य में अनेक स्त्री-पुरुष पात्र हैं किन्तु चरित्र मिलता है। अलंकारों में यमक के अतिरिक्त भाषा को की दृष्टि से शांतिनाथ, चक्रायुध, अशनिघोष सुतारा सरलता अक्षत है। उपमा, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास को आदि प्रमुख है। प्रकृति चित्रण कम है, कही-कहीं सक्षेप यत्र तत्र स्वाभाविक योजना है।। में प्रातः संध्या, सर, उपवन, ऋतु वर्णन है । सौन्दर्यचित्रण प्रत्येक सर्ग में एक छन्द तथा अंत में छन्द परिवर्तन भी है किन्तु परम्परागत उपमानों द्वारा ही मोलिक है। १४वें सर्ग में विविध छन्दों को प्रयोग है। कुल मिला कल्पनाएं कवि की सुन्दर है। इस काव्य मे सामयिक कर १६ छन्द हैं। उपजाति छन्द सर्वाधिक है। सामाजिक व्यवस्था सुन्दर है । अपने युग में जन्म, विवाह
कवि ने काव्य पंचक (रघुवंश, कुमार सभव, किराआदि अवसर पर सामाजिक धार्मिक कार्यों का विवरण
तार्जुनीयम्, शिशुपालवघ, नैषध) के समकक्ष जैन साहित्य देकर कवि ने रीति-रिवाजों पर अच्छा प्रकाश डाला है।
में काव्य के प्रभाव की पूर्ति के लिए उक्त काव्य रचना काव्य कला की दृष्टि से विविध रस है। शांत रस की है। इस काव्य का संशोधन राजशेखर सरि ने किया प्रधान परन्तु वीर रौद्र, शृंगार वात्सल्य की छटा भी है। था। कवि का रचना काल भी प्रशस्ति मे संवत् १४१० काव्य की भाषा में प्रौढ़ता, लालित्य एवं अनेक रूपता के दिया गया है। दर्शन होते है। अलकारो मे यमक कई स्थलों पर प्रयोग
(क्रमशः) सन्दर्भ-सूची १. स पुराणमिदं व्यधत्त शान्तेरसगः साधुजन प्रमोह कत्तिय पढम पक्खि पंचमिदिणि, शान्त्यः ॥
हुउ परिपुण्ण वि उग्गंतइ इणि ।। कवि प्रशस्ति पद्य, श्रीशांतिनाथ पुराण पृ. २५७.
-कवि महाचन्द्र : शांतिनाथ चरित प्रशस्ति २. श्री परमानंद आचार्य : जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, १२. जिन रत्नकोश, पृ. ३७६. भाग २ पृ २१५-१६.
१३. डा० गुलाबचन्द्र चौधरी : जैन साहित्य का वहद ३. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास (भाग ७), पार्श्वनाथ इतिहास, भाग ६, पृ. ८६. विद्याश्रम प्रकाशन, पृ. १६.
१४. दुलीचन्द्र पन्नालाल देवरी १९२३, हिन्दी अनुवाद४. जैन साहित्य का वृसत् इतिहास भाग ७, पृ. १६-२०
जिनवाणी प्र० का० कलकत्ता १९३६.
(इसका अनुवाद सूरत से पं० लालाराम शास्त्रीकृत ५. वही-पृ. १०.
भी उपलब्ध है।) ६. आसी विक्रमभपतेः कलियुगे शांतोत्तरे संगते ।
१५. जन माहित्य का वृहद् इतिहास भाग ६, पृ. १०६. सत्यं क्रोधननामधेयविपुले संवच्छरे संमते।
१६. ज.ध. प्रा. इ. भाग २, पृ. ३५७. दत्ते तत्र चतुर्दशेतु परमो षट्त्रिंशके स्वांशके ।
१७. चतुः सप्तति संयुक्ते पञ्च पञ्चाशता शतो। मासे फाल्गुणि पूर्व पक्षकबुधे सम्यक् तृतीयां तिथो ।
प्रत्यक्षर गणनया ग्रन्थमानं भवेदिह ॥ -जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ. ४८५.
-ग्रन्थाग्र ५५७४ प्रशस्ति श्लोक २०. ७. वही-पृ. ४८५.
१८. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ६, पृ.१०५-६. ८. शुभकीति : शांतिनाथ चरित १०वी संधि ।
१६. वही-पृ. १०३. ६. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ. ५२५. २०. शांतिनाथ चरित : मुनिभद्र सूरि--सर्ग १/५४, १०. वही-पृ. ५२५.
३/११३, ११६-१२८, ४/२६, ६-६०. ११. विक्रमरायहु ववगय कालहु,
२१. जैन साहित्य का वृहत् इतिहास भाग ६, पृ. ५१०. रिसिवसु-सर-भविअंकालइ।
२२. प्रशस्ति पद्य ११-१४ शांतिनाथ चरित : मुनिभद्र सरि