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२८, वर्ष ४५, कि०३
अनेकान्त
निर्दिष्ट किया है । इसका आधार हरिभद्र सूरि का अनुष्टुप छन्द का प्रयोग हुआ है। परन्तु सर्ग के अन्त में समराइञ्चकहा माना जाता है।
छन्द बदल दिया गया है। मालिनी, शार्दूलविक्रीडित आदि इसमें वैसे महाकव्य के सभी बाह्य लक्षण समाविष्ट कुछ छन्दों का प्रयोग हुआ है । शांतिनाथ चरित की रचना हैं परन्तु भाषा शैथिल्य सर्वांगीण जीवन के चित्र विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध मानने में आपत्ति उपस्थित करने की अक्षमता एवं मार्मिक स्थलों की कमी न होनी चाहिए। अनुमान किया जाता है कि यह कवि इसे प्रमुख महाकाव्य मानने में बाधक है। सगों के नाम की वृद्ध अवस्था होगी क्योंकि इस कृति में कवि अपने वणित घटनाओं के आधार पर रखे गये हैं। सप्तम सर्ग पांडित्य प्रदर्शन के प्रति उदासीन है जबकि काव्य प्रकाश तो जैन धर्म के सिद्धान्तों से ही परिपूर्ण है। काव्य वैराग्य संकेत में उनके प्रौढ़ पांडित्य के दर्शन होते हैं"। मूलक और शान्तरस पर्यवसायी है। इसका कथानक ८. शान्तिनाथ चरित : ज्ञान सागर-वहत्तपाशिथिल है और इसमे प्रबन्ध रूढ़ियो का पालन हुआ है। गच्छ के रत्नसिंह के शिष्य ज्ञान सागर ने संवत् १ण१७ मंगलाचरण परमब्रह्म की स्तुति से प्रारम्भ होता है। में शांतिनाथ चरित की रचना की। छठे. सातवें और आठवे सर्ग मे विविध आख्यानों का समा-
शान्तिनाथ चरित: मनि भद्र सूरि-मुनिवेश है। कई स्थलो पर स्वमतप्रशसा और परमतखडन
भद्र सूरि के शांतिनाथ चरित महाकाव्य की कथावस्तु का किया है। इस काव्य मे स्तोत्रों और महात्म्य वर्णनों की
आधार मुनिदेव सूरि का शांतिनाथ चरित है। प्रचुरता भी दिखाई देती है। छठे और आठवें सर्ग में
मूल कथा के साथ-साथ इसमें अवान्तर कथाओं को तीर्थकर शांतिनाथ के स्तोत्र तथा कई तीर्थों के महात्म्य
भरमार है यथामंगल कुंभ कथानक, धनद, पुत्र कथा, का वर्णन है। इस शातिनाथ चरित का कथानक ठीक
अमरदत्त नूप कथा, वणिक द्वय कथा, परिवार कथा, वही है जो मुनिभद्र सूरि के शांतिनाथ महाकाव्य का है, परन्तु इसमे कथानक का विभाजन नवीन ढंग से किया
अमृताम्रभूपति कथा, स्कन्दिल पुत्र कथा, गुण वमं कथा,
अग्नि शर्मा द्विजकथा, भानुदत्त कथा, माधव कथा आदि। गया है। इसमे प्रथम सर्ग मे शांतिनाथ के प्रथम भव,
इसमे धनदत्त की कथा ५, ६, ७ सर्ग घेरे हुए है। इस द्वितीय, तृतीय भव का वर्णन है। द्वितीय सर्ग मे चतुर्थ पचम भव, तृतीय सर्ग में षष्ठ और सप्तम भव का, चतुर्थ
अवान्तर कथाओं के चयन में भी प्रस्तुत काव्य के रचयिता सर्ग में अष्टम और नवम भव का, पंचम सर्ग मे दशम मुनिभद्र ने मुनिदेव का अनुकरण किया है। इस तरह और एकादश भव का, षष्ठ सर्ग में शांतिनाथ के जन्म,
प्रस्तुत काव्य मे जैन धर्म के तत्त्वो का अनुकरण भी मुनिराज्याभिषेक, दीक्षा, केवलोत्पत्ति तथा देशना का वर्णन है
भद्र ने किया है। इसमें मुनिभद्र ने मौलिक सृजन शक्ति सप्तम सर्ग में देशना के अन्त द्वादश भव तथा शील की का परिचय नहीं दिया फिर भी यह काव्य अपनी प्रौढ महिमा का वर्णन है और अष्टम सर्ग में श्री शांतिनाथ का।
भाषा शैली और उदात्त अभिव्यंजना शक्ति से अपना पृथक निर्वाण का वर्णन है। कथानक विभाजन की दृष्टि से
नक विभाजन की दृष्टि से स्थान रखता है। नहीं अपितु नवीन अवान्तर कथाओं की योजना में भी
यह काव्य १६ सर्गों में विभक्त है। अनुष्टप मान से माणिक्यचन्द्र सूरि ने अपनी मौलिकता प्रदर्शित की है। रचना परिमाण ६२७२ श्लोक प्रमाण है । भवान्तर तथा
इसकी भाषा सरल और प्रसाद गुण युक्त है। अधिक- अवान्तर कथानकों के प्राचर्य के साथ इस काव्य में स्तोत्री तर इसमें छोटे समासों वाली या समास रहित पदावली और महात्म्यों का समावेश भी अधिक मात्रा में हुआ है। का प्रयोग हुआ है। इसमे शब्दालंकार के चमक और प्रत्येक सर्ग का आरम्भ शांतिनाथ स्तवन से हआ है और अनुप्रास के प्रयोग से भाषा में प्रवाह और माधुर्य आ गया बीच-बीच मे देवताओं और कथानक के पात्रों द्वारा जिनेन्द्र है। अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक एवं विरोधा- स्तुति, मेघरथ आदि सत्पुरुषों की देवों द्वारा स्तुति की भास आदि अलंकार की सुन्दर योजना हुई है । इसमे प्रायः गई है। शत्रुजय महात्म्य आदि एक दो महात्म्य भी हैं।