Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 93
________________ प्राचार्य कवकन्द और जनवार्शनिक प्रमाणव्यवस्था आवश्यक नहीं होती। अत: आत्मा की स्वशक्ति के आधार योगी हैं, वे अप्रमाण्य (मिथ्या) हैंसे प्रकट होने से, यह ज्ञान प्रत्यक्ष माना गया है। परमा- आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । र्थत: जैनदर्शन में यही प्रत्यक्षज्ञान है कुमदिसुदविभंगाणि य तिणि वि णाणेहि संजुते॥ -जदि केवलेण णाद हवदि हि जीवेण पच्चक्ख ।। -पंचास्तिकाय, गाथ ४१ प्रवचनसार, गाथा १/५८. अतएक सम्यग्दृष्टि के सभी ज्ञान सम्यक् (प्रमाण) परोक्ष ज्ञान-प्रकृत में अक्ष का अर्थ है- चक्षु । ' और मिथ्यादृष्टि के समस्त ज्ञान मिथ्या (अप्रमाण) कहे उपलक्षण से यहां पर चत्रु, कर्ण आदि पांचों इन्द्रियों तथा गये । आचार्य समन्तभद्र ने भी तत्त्वज्ञान (केवलज्ञान) को अनिन्द्रिय मन का ग्रहण होता है। चक्षु आदि इन्द्रियां ही प्रमाण कहा है, क्योकि वह एक साथ सबका शान परद्रव्य हैं, ये आत्मा का स्वभाव नहीं है । अत: परद्रव्यो कराने वाला होता हैइन्द्रियादिक की सहायता से उत्पन्न होने वाला पदार्थों तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । का विशेषज्ञान, परजनित होने से पराधीन है, इसलिए क्रमभावी च यज्ज्ञान स्याद्वादनयसस्कृतम् ।। परोक्ष है। यह इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न ज्ञान पोद्गलिक -आप्तमीमांसा, कारिका १०१ इन्द्रियों द्वारा होता है, उनके आधीन होकर पदार्थ को उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लोकव्यवहार मे जिसे जानता है, इन्द्रियां पराधीन हैं, अत: यह ज्ञान भी परोक्ष प्रत्यक्षज्ञान कहा जाता है । अथवा, जनेतर न्याय-वैशेषिहै, क्योकि पराधीन ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। कहा कादि दार्शनिक परम्पराओ मे जिन इन्द्रियजन्य ज्ञानो को भी गया हैपरदव्वं ते अक्खा व सहावो त्ति अप्पणो भणिदा । प्रत्यक्ष माना गया, वे सभी ज्ञान कुन्दकुन्द तक जैन परपरा मे-परोक्षज्ञान के ही अन्तर्गत थे। मूलत: यही प्राचीन उवलद्ध तेहि कध पच्चक्खं अप्पणो होदि ।। आगम सरम्परा है, परन्तु बाद में इसका क्रमशः विकास ज परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमढेसु । हुआ है। प्रमाण-न्याय युग मे जैनदार्शनिको मे भी प्रमाण-प्रवचनसार, गाथा १/५७-५८ मीमासा के अनुरूप अनेक नये शब्दो को समाहित किया ज्ञान जीव का निज गुण है, और गुण गुणी से पृथक् नही रह सकता। कर्मबन्ध से पूर्णतया मुक्त एव शुद्ध इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्रमाणयुग मे उपर्युक्त स्वरूप को प्राप्त जीव को यह ज्ञान गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है । ज्ञान स्वसवेद्य तथा स्व-पर प्रकाशक भी है, प्रत्यक्ष ओर परोक्ष ज्ञानो को ही प्रमाण माना गया। इसलिए वह ज्ञाता और ज्ञेय दोनों है । ससारी अवस्था मे तत्त्वार्थसूत्रकार ने मति, श्रुत आदि ज्ञान के पांच भेदों कर्मबद्ध जीव के ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान का विवेचन किया और उन्ही पाच को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप दो प्रमाणों के नाम से विभक्त किया। यही से जैन का आवरण जैसे-जैसे कम होता है, वैसे-वैसे ज्ञान का परम्परा मे ज्ञानमीमासा का प्रमाणमीमांसीय विवेचन क्रमिक विकास होता जाता है। जैनपरम्परा ज्ञान को ही प्रमाण मानती है, परन्तु प्रारम्भ हुआ है। परन्तु, यहा पर भी ज्ञान की प्रमाणता यहां यह विशेष ध्यानदेन योग्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द (सरयता) आर अ (सत्यता) ओर अप्रमाणता (असत्यता) का आधार पूर्ववत् के अनुसार ज्ञान की प्रमाणता (सत्यता-सम्यक्त्व) और रहा । लौकिक प्रत्यक्ष का परोक्ष मानने की परम्परा मी अप्रमाणता (असत्यता-मिथ्यात्व) बाह्य पदार्थों को यथार्थ पहले की तरह स्थिर रही। जानने अथवा अयथार्थ जानने पर आधारित नहीं है, इस प्रकार कुन्दकुन्द ने जो ज्ञान का प्रत्यक्ष एवं अपितु जो ज्ञान आत्म-सशोधन मे कारण हैं, और अन्ततः परोक्ष रूप मे विभाजन किया था, उसे ही बाद में एक मोक्षमार्ग में उपयोगी-सहायक सिद्ध होते हैं, वे ज्ञान नयी व्यवस्था दी गयी, और उसे प्रमाणरूप से विवेचित प्रमाण (सम्यक) हैं। एव जो ज्ञान मोक्षमार्ग में अनुप- किया गया। ___ (शेष पृ० २३ पर)

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