Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 92
________________ आचार्य कुन्दकुन्द और जैन दार्शनिक प्रमाण व्यवस्था डॉ. कमलेश जैन, वाराणसी ज्ञान एवं प्रमाणविषयक चिन्तन भारतीय दर्शनों का पद्धति पर किया जाने लगा। इस प्रकार ज्ञानमीमांसा का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। भारतीय दार्शनिक इतिहास क्रमशः विकास हुआ जो कि ताकिक युग में प्रमाणमीमांसा को देखने से स्पष्ट होता है कि ज्ञान और प्रमाणमीमांसीय का प्रमुख आधार बना। चिन्तन उत्तरोत्तर विकसित हुमा है। प्रारम्भ में ज्ञान आचार्य कुन्दकुन्द रचित साहित्य में प्रमाणविषयक मीमांसा पर ही अधिक बल दिया गया और ज्ञान सम्यक् विवेचन नहीं है। 'प्रमाण' शब्द का प्रयोग कुन्दकुन्द के (प्रमाण) है या मिथ्या (अप्रमाण), इसके निर्णय पर साहित्य में मात्र पांच स्थलों पर भिन्न-भिन्न प्रसगो मे विस्तार से विचार किया गया। परन्तु ताकिक शैली के हुआ है, परन्तु उन पांच स्थलों में प्रयुक्त प्रमाण शब्द विकास के साथ ज्ञान । (प्रमाणविषयक) चिन्तन तार्किक कही भी प्रमाणमीमांसीय सन्दर्भ से सम्बद्ध नहीं है, अपितु (पृ० १७ का शेषाश) पांचों स्थानों पर प्रमाण का अर्थ परिमाण (परिमाप या बैठी हैं, प्रतिमा का आकार ३४४३२४७ सेमी. है। समानता) से है। समयसार गाथा ४, प्रवचनसार गाथा द्वितीय प्रतिमा तीर्थङ्कर प्रतिमा वितान का बायां भाग है, १/२३-२४, मोक्षप्राभूत गाथा ६६ । इस पर स्तम्भ युक्त गवाक्ष के अन्दर पद्मासन में तीर्थकर कुन्दकुन्द के प्रायः सभी ग्रन्थों में ज्ञानसामान्य की बैठे हैं। तीर्थंकर के बायें ओर एक पधामन में एवं दो चर्चा की गयी है । और आमिनिबोधिक/मत, श्रति आदि कायोत्सर्ग में जिन प्रतिमा बैठी हैं। इसके अतिरिक्त इस के भेद से ज्ञान की पांच अवस्थाओ का विवेचन है। उनके खण्ड पर विभिन्न प्रकार की लता बल्लरियों का आलेखन प्रवचनसार में ज्ञानाधिकार नाम से एक स्वतंत्र अधिकार है। प्रतिमा का प्राकार ३२४३३४२० से. मी. है। भी लिखा है । यहां पर ज्ञान का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप तिथिक्रम की दृष्टि से दोनों प्रतिमा ७वीं-८वी शती ई० में विभाजन है। इस विभाजन का आधार लोक व्यवहार की प्रतीत होती है। एवं जनेतर धार्मिक-दार्शनिक परम्पराओं से सर्वथा भिन्न यद्यपि यह मन्दिर अपने प्राचीन अस्तित्व मे नही है. है। यह आधार है-आत्मसापेक्षता। जो ज्ञान अतीन्द्रिय परन्तु यह दुर्ग जिले के जैन कला के विकास में अपना एव आत्मसापेक्ष है, वह प्रत्यक्ष है। और जिस ज्ञान में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। -पुरातत्व संग्रहालय इन्द्रिय, मन आदि की सहायता अपेक्षित होती है, वह इन्द्रिय, मन आदि का सहायता अपाक्ष रायपुर (म०प्र०) परोक्ष है। यहाँ पर दोनो का अन्तर समझना आवश्यक १. नगायच वेदप्रकाश 'नागदेव मन्दिर' नगपुरा का प्रत्यक्ष ज्ञान-यहीं पर 'अक्ष' शब्द का अर्थ हैनिरीक्षण प्रतिवेदन दिनांक १४-१०-८७. 'आत्मा/अक्षणोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा ।'२. दुर्ग डिस्ट्रिक गजेटियर पृ. १८२ एवं शर्मा राज- सर्वार्थसिद्धि १/१२ । केवलज्ञान आत्मा को योग्पता से कुमार 'मध्य प्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रथ' भोपाल प्रकट होता है। यह ज्ञान अतीन्द्रिय, आत्ममात्रसापेक्ष और १९७४ पृ. २८३ क्रमांक १२३४. स्वावलम्बी है । इसके प्रकट होने पर दूसरे किसी ज्ञान की ३. शर्मा सीताराम 'भोरमदेव क्षेत्र पश्चिम-दक्षिरण स्थिति नहीं रहती, अत: अकेला रहने से 'केबल' कहलाता कोसल की कला' अजमेर १९६० पृ. १६२-१६३. है। इसके होने में इन्द्रियादिक परद्रव्यों की सहायता

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