Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 69
________________ दिल की बात दिल से कहो-और रो लिए! C पद्मचन्द्र शास्त्रो सं० 'अनेकान्त' काश, एकांगी आत्मचर्चा न होती तो आत्मा शब्द, स्पर्श, रूप, रस-गन्ध राहत, अव्यय, भारत धर्मप्रधान देश रहा है और धर्म का सम्बन्ध अनादि अनन्न, महान् और ध्रुव है, उसको प्राप्त कर आत्मा से है। अतः सभी धर्मों ने प्राय: आत्मा को किसी मृत्यु के मुख स छूट जाता है। न किसी रूप में माना है। जनो ने आत्मा को सतत्र अन्य उपनिषदों में भी कही प्रजापति, इन्द्र और द्रव्य और अन्यो मे किसी ने ब्रह्म का अंश और किन्ही न असुरो और कही भारद्वाज और सनत्कुमार के माध्यम से और किसी रूप में। फलत: समय-समय पर लोगो में आत्मा की जिज्ञासा रहती रही है और चर्चाएं भी होती पान्मा की चर्चा है। इस प्रकार उस समय आत्म-जिज्ञासा रही हैं। उपनिषद् काल मे तो इस चर्चा का विशेष की धारा प्रवाहित होती रही। " जोर रहा है। कठोपनिषद में एक प्रसग में कहा है कि जीनयो मे तो आत्मा की उपलब्धि का मार्ग अनादि जब उद्दाक ऋषि ने ऋत्विजो को अपना सर्वस्व दान मे प्रवाहित रहा है। भूतकाल की अनन्त चौबीमी और दे दिया और वह शेष बची बूढ़ी गोओ को भी दान मे अनन्त अपरिग्रही मुनि ज्ञान और चारित्र के बल पर देने लगा तब उसके पुत्र नचिकेता ने उसे कहा-पिता प्रा.मा के स्वरूप का अवगम कर शुद्ध दशा को प्राप्त होते जी, इन बूढी गौओ को दान मे क्यों दे रहे हैं ? आपके रहे हैं। हाँ, उनमे विशेषता यह रही कि वे भेद-ज्ञान सर्वस्व मे तो मैं भी हूं, मुझे दान में दे दीजिए। जब द्वारा आत्मस्वरूप के उस पद को प्राप्ति के लिए, पर से पिता ने नचिकेता के बारम्बार कहने पर भी कोई उत्तर भिन्न-एकाकी-अपरिग्रही होने मे तत्पर रहकर ही आत्मन दिया। नचिकेता ने फिर-फिर कहना चालू रखा । तब दर्शन या आत्म-स्वरूप की उपलब्धि कर सके हैं । यदि वे कुपित हो पिता ने कहा कि जा, तुझे मैं यम को देता हूं। त्यागरूप चारित्र के बिना आत्मा की कोरी रट या चर्चा ऐसा सुनते ही नचिकेता यम के द्वार पर जा पहुच।। मात्र पर अवलम्बित रहते तो कदाचित् भो शुद्ध आत्मत्व वहीं मालूम हुआ कि यमराज कहीं बाहर गए है। तब को प्राप्त न होते। यम के द्वार पर तीन दिन-रात भखा.प्यासा पडा रहा। जैनियों के मान्य मूल-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट जब यम पाये तो इसकी लगन में प्रसन्न होकर कहा - तुझे मैं तीन वरदान देता है। बो। और मांग ले। नचि "अहमियको खलु सुद्धो बसण-णाण मइयो सदाऽरूवी। कता ने वरदान लेने से इन्कार कर दिया और कहा कि ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि प्रगणं परमाणमित्तं पि॥" मुझे तो माप आत्मा का स्वरूप बताइये । यम ने कहा तू नही समझ सकेगा, इस आत्मा के विषय मे तो बड़े-बड़े मैं एकाकी (अकेन्ना) हु, मैं निश्चय ही (स्वभावतः) महर्षि भी नहीं ममझ पाए है। फिर भी आत्मा का स्वरूप शुद्ध हू, मैं दर्शन-ज्ञान मय और अरूपी (रूप-रस-गंध जैसा है उसे सुन स्पर्श से रहित) हू । अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नही है। 'अशब्दमस्पर्शमरूपमव्यय इसका आशय ऐया कि जब अन्य परमाणु मात्र भी मेरा तथारसं नित्यमगग्धवच्च यत् । नही है तब मैं एकाकी, शुद्ध, पूर्णदर्शन ज्ञानरूप और अरूपी प्रनाथनन्तं महतः परं ध्र, है। अथवा जब मैं णुद्ध हू तब अन्य परमाणु मात्र (भी) निचाभ्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ।।' मेरा नही है। इस भाति गाथा की दोनों पक्तियां परस्पर

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