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गतांक से आगे : संस्कृत जैन-चम्पू और चम्पूकार
___ डॉ० कपूरचन्द जैन सूक्त्ये तेषां भवभीरवों ये, गृहाश्रमस्याश्चरितात्मधर्माः। सूरि से अहंद्दास जी ने उपदेश ग्रहण कर उन्हें गुरू मान त एव शेषाश्रमिणां सहाय्या, धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः॥ रखा था, यह प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि सूक्ति
उक्त पद्य के आधार पर डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने और उक्ति का अर्थ रचना-बद्ध ग्रन्थ-सन्दर्भ का भी हो लिखा है कि 'इस पद्य में प्रकारान्तर से आशाधर की सकता है। प्रशसा की गई है और बताया गया है कि गृहस्थाश्रम मे हमारे अनुमान से यह उचित प्रतीत होता है कि रहते हुए भी वे जैन धर्म का पालन करत थे तथा अन्य आशाधर के अन्तिम समय अर्थात् वि. स. १३०० में आश्रमवासियों की सहायता भी किया करते थे। इस पद्य अहंद्दास आशाधर जी के पास पहुंचे होंगे और एक-दो वर्ष में आशाधर की जिस परोपकार वृत्ति का निर्देश किया
नाशि किया साक्षात् शिष्यत्व प्राप्त कर उनके धर्मामत से प्रभावित
होकर काव्य रचना में प्रवृत्त हुए होंगे। गया है, उसका अनुभव कवि ने सम्भवतः प्रत्यक्ष किया है
अर्हद्दास के काल निर्धारण में भी आशाधर और और प्रत्यक्ष में कहे जाने वाले सद्वचन भी सूक्ति कहलाते
अजितसेन (अलकार चिन्तामणि के कर्ता अजितसेन) हैं, अतएव बहुत सम्भव है कि अहंदास आशाधर के समकालीन हों'। कैलाश चन्द्र शास्त्री ने भी उक्त आधार
महत्वपूर्ण मानदण्ड है । अर्हद्दास ने अपनी कृतियों में
आशापर का नामोल्लेख जिस सम्मान और श्रद्धा से किया पर अहंदास का आशाधर के लघु-समकालीन होने का
है उससे तो इस अनुमान के लिए पर्याप्त आधार मिलता अनुमान किया है। किन्तु इस सन्दर्भ मे प० नाथूराम
है कि वे आशाधर के साक्षात् शिष्य रहे होंगे। किन्तु प्रेमी और प० हरनाथ द्विवेदी के मतों को दृष्टि ओझल
आशाधर ने अपने ग्रन्थों में जिन आचार्यों और कवियो का नहीं किया जा सकता । प्रेमी जी ने लिखा है कि 'इन पद्यो
उल्लेख किया है, उनमे अहंदास का उल्लेख नहीं है । यहाँ मे स्पष्ट ही उनकी सूक्तियों या उनके सद्ग्रन्थो का ही
तक कि उनको अन्तिम रचना 'अनगार धर्मामत की टीका' संकेत है, जिनके द्वारा प्रदास जी को सन्मार्ग की प्राप्ति
मे अहंदास या उनके किसी ग्रन्थ का कोई उल्लेख नहीं हुई थी। गुरू शिष्यत्व का नही। इसी प्रकार माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित 'पुरुदेव चम्पू'
इससे इतना तो निविवाद सिद्ध है कि वे आशाधर के सम्पादक पं० जिनदास शास्त्री फडकुले के मत पर नजर
के पश्चात्वर्ती हैं। साथ ही आचार्य अजितसेन ने अपनी कटाक्ष करते इए प० हरनाथ द्विवेदी ने लिखा है-“पुरु
'अलकार चिन्तामणि' मे जिनसेन, हरिचन्द्र, वाग्भट आदि देव चम्पू" के विज्ञ सम्पादक फडकुले महोदय ने अपनी
के साथ ही अहंदास के 'मुनिसुव्रत काव्य' के अनेक श्लोक पाण्डित्यपूर्ण भूमिका मे लिखा है कि उल्लिखित प्रशस्तियो
उदाहरण स्वरूप दिये हैं। मुनिसुव्रत काव्य के प्रथम सर्ग से कविवर अहंदास पण्डिताचार्य आशाधरजी के समकालीन
का दूसरा श्लोक अलकार चिन्तामणि (भारतीय ज्ञानपीठ निविवाद सिद्ध होते है। किन्तु कम से कम मै आपकी
सस्करण) के पृष्ठ १२३, १५३ तथा २६६ पर उदाहरण इस समय निर्णायक सरणी से सहमत हो, आपकी निवि
स्वरूप दिया गया है । इसी प्रकार १/३४, २/३१, २/३२ वादिता स्वीकार करने में असमर्थ हूं। क्योंकि प्रशस्तियों
तथा २/३३ श्लोक अलकार चिन्तामणि के क्रमशः पृष्ठ से यह नहीं सिद्ध होता कि आशाधर जी की साक्षात्कृति २०५२
२०५, २२८ तथा २११ पर दिये गये हैं। अहंदास जी को थी कि नही। सूक्ति और जक को इससे यह स्पष्ट है कि अर्हदास आचार्य अजितसेन से अधिकता से यह अनुमान करना कि साक्षात् आशाधर पूर्ववर्ती हैं।