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गतांक से आगे:
अकलङ्कदेव की मौलिक कृति तत्त्वार्थवातिक
डॉ रमेशचन्द जैन, बिजनौर
वेद समीक्षा-प्रथम अध्याय के दूसरे सूत्र की समय अकलङ्कदेव ने प्रायः बौद्ध, न्याय-वैशेषिक और ध्याख्या में "पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्यादि ऋग्वेद के पुरुष- सांख्य को दृष्टि मे रखा है, किन्तु इनमे भी बौद्ध मन्तव्यों सूक्त की पक्ति उद्धृत करते हुए कहा गया है कि ऋग्वेद की उन्होंने जगह-जगह आलोचना की है। इसका कारण मे पुरुष ही सर्व है, वही तत्त्व है। उसका श्रद्धान सम्यग- यह है कि उनके समय बौद्धधर्म जैनधर्म का प्रबल विरोधी दर्शन है। यह कहना उचित नहीं है; क्योंकि अद्वैतवाद मे धर्म था। बौद्धधर्म का मर्मस्पर्शी अध्ययन करने हेतु क्रिया-कारक आदि समस्त भेद-व्यवहार का लोप हो अकलङ्कदेव को छिपकर बौद्ध मठ मे रहना पड़ा था। जाता है।
इस हेतु उन्हे अनेक कष्टो का सामना करना पड़ा, किन्तु आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में बाद- वे दुःखों के बीच रहकर भी घबराए नहीं। बौद्ध शास्त्रों रायण, वसु, जैमिनि आदि श्रुतविहित क्रिया प्रो का अनु- का अध्ययन कर उन्होंने जगह-२ उनसे शास्त्रार्थ कर जैन ठान करने वालों को अज्ञानी कहा है; क्योंकि इन्होने दर्शन को विजय दुन्दुभी बजायी। उनको तर्कपूर्ण प्रतिभा प्राणिवध को धर्म का साधन माना है। समस्त प्राणियों को देखते हए उन्हें प्रकलङ्क ब्रह्म कहा जाने लगा। के हित के अनुशासन में जो प्रवृत्ति कराता है, वही आगम तत्वार्थवार्तिक के कतिपय स्थल हम उदाहरण रूप में हो सकता है, हिंसाविधायी वचनों का कथन करने वाले प्रस्तुत करते हैं। जिससे उनकी बौद्धविद्या में गहरी पंठ आगम नही हो सकते, जैसे दस्युजनों के वचन'। अनवस्थान की जानकारी प्राप्त होती है। होने से भी ये आगम नहीं हैं अर्थात् कही हिंसा और कही प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या मे कहा गया अहिंसा का परस्पर विरोधी कथन इनमे मिलता है। है कि यद्यपि बोद्ध रूप, वेदना, सजा, सस्कार और विज्ञान जैसे पूनर्वसू पहला है पुष्प पहला है, ये परस्पर विरोधी इन पांच स्कन्धों के निरोध से आत्मा के अभाव रूप मोक्ष वचन होने से अनवस्थित एवं अप्रमाण है, उसी प्रकार के अन्यथा लक्षण की कल्पना करते है। तथापि कर्मवेद भी कही पर पशुवध को धर्म का हेतु कहा है जैसे बन्धन के विनाश रूप मोक्ष के सामान्य लक्षण मे किसी एक स्थान पर लिखा है कि पशुवध से सर्व इष्ट पदार्थ भी वादी का विवाद नहीं है। बौद्ध कहते हैं कि अविद्या मिलते है। यज्ञ विभूति के लिए है, अतः यज्ञ में होने प्रत्यय संस्कार के प्रभाव से मोक्ष होता है। जनों का वाला वध अवध है। दूसरी जगह लिखा है कि 'अज', कहना है कि संस्कारों का क्षय ज्ञान से होता है कि किसी जिनमे अकूर उत्पन्न होने की शक्ति न हो, ऐसे तीन वर्ष कारण से ? यदि ज्ञान से संस्कारों का क्षय होगा तो ज्ञान पराने बीज से पिष्टमय बलिपशु बनाकर यज्ञ करना होते ही संस्कारों का क्षय भी हो जायगा और शीघ्र मुक्ति चाहिए, इस प्रकार हिंसा का खण्डन किया गया है । इस हो जाने से प्रवचनोपदेश का अभाव होगा। यदि सस्कार प्रकार ये वचन परस्पर विरोधी हैं, अतः अध्यवस्थित तथा क्षय के लिए अन्य कारण अपेक्षित है तो चारित्र के सिवाय विरोधी होने से वेदवाक्य प्रमाण नहीं हो सकते'। इस दूसरा कौन सा कारण है ? यदि संस्कारों का क्षय चारित्र तरह वेदवाक्य की प्रमाणता का तत्त्वार्थवार्तिक में विस्तृत से होता है तो ज्ञान से मोक्ष होता है, इस प्रतिज्ञा की खडन किया गया है।
हानि होगी। बौद्धदर्शन समीक्षा-अन्य दर्शनों की समीक्षा करते पांचवें अध्याय के नौवें सूत्र की व्याख्या में कहा गया