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विद्वान नहीं मिलते:
इनको खुश करने की बात और क्यों करेगा इनके मन लोग कहते हैं अब विद्वान् ही नही मिलते । हम कहते चीते माफिक ? वह तो सोचेगाहैं-विद्वानो को समझने वाले ही कहां कितने हैं ? जो त्वं राजा वयमप्युपासित गुरुः प्रज्ञाभिमानोन्नताः।' विद्वान तैयार हों? उक्त प्रसंग और अर्थ-युग के प्रभाव फलतः यह तो व्यापारी को सोचना होगा कि वह को जान पूर्व विद्वानों ने अपनी संतान को अपनी लाइन धर्म-रक्षण के लिए विद्वान की सहाय करे या धर्म-विद्या से मोडा और उनकी संतान प्रायः पाश्वात्य शिक्षा में को पैसे कमाने मे प्रयोग करने वाले की? हमारी समझ दक्ष बनी और मजे में हैं। यह अर्थ युग का ही प्रभाव है से समाज ने ठीक से नही समझा और विद्वानों का अभाव कि आज प्राय: कितने ही नो-सिखिए तक ठहराव कर, होता गया। यहां तक कि गत समय में कई स्वाभिमानी पूजा-पाठ, विवाह, प्रतिष्ठा और विधान से धार्मिक प्रकाण्ड विद्वान तक अभाव मे घुटते-घुटते दम तोड़ गए। कृत्य करा पैसा बटोरने के धन्दे में लगे है-जिनवाणी पर, धन्य है उन्हें और उनकी विद्वत्ता को जो बिके नहीं। को बेचना कहां तक उसकी विनय है, इसे सोचिए ? हमे समाज की उक्त दशा पर रोना आता है और दिल दूसरी ओर अर्थ-व्यवसायी हैं जो मर्जी माफिक कार्य कर की बात दिल से कहकर रो लेते हैं-सुनता कोई नहीं। देने के कारण इन धर्म-व्यवसाइयों को प्रभूत धन देने पर हम कई नेताओं को कहते रहे हैं-ठोस विद्वान् तैयार तुले है-ठीक ही है माफिक आचरण करने वाले को करने में धन लगाओ। पर, किसका ध्यान है और किसे कौन नहीं चाहता?
फुर्सत है यश-अर्जन के सिवाय? भला, विद्वान में यह बातें कहाँ ? विद्वान क्यों कहेगा,
00 (पृ० ३० का शेषांश) जे निरवारि विसद्ध भये तन चेनि कर्म पूरातम गोभा। श्रो नमिनाय सदा शिव (सिउ) के गुन की वरनौं स कहा करि शोभा ॥२१॥
श्री नेमिनाथ स्तुति तैईसा-राजमती सो त्रिया तजि के पनि मोख वध सत्रिया को सिधारे।
राज विभौ/भव) तजिकै सबही सब जीव निदान दऐ हितकारे । आतम ध्यान धरयो गिरिनारि पै कर्म कलंक सबै तिन्हि जारे । जादौं को वंस करो सब निर्मल जै (य) जगनाथ जगत्रय भारे ॥२२॥
श्री पाश्वनाथ स्तुत सवैया ३२--नाम को बड़ाई जाके पाहन सुपाई काह ताहि स्पर्श होहि कंचन सु लोह को।
अचिरज कहा है तिन्हि को निज ध्यान धरै होत है विनास रागदोष अरु मोह को। तिन ही बतायो मोक्ष मारग प्रकटरूप पारिवे को कम चेतन विछोह को। देखो प्रभ पारस को परम स्वरूप जाने भयो सो करै या सुद्ध आतम की टोह को ॥२३॥
श्री धर्द्धमान स्तति सवैया-सकल सुरेस सीस नावत असुर ईस जाके गुन ध्यावत नरेस सर्व देस के।
धोई मैल कम चार घातिया पवित्र भये थिर हो अकंप विर्षे आत्मा प्रदेस के । तारन समर्थ भवसागर त्रिलोकनाथ कर्ता अनूप सुद्ध धर्म उपदेस के। असे वर्द्धमान जू को बंदना त्रिकाल करौं दाता हमकौं सु होहु सुमति सदेस के ॥२४॥
सौजन्य : श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते ।