Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 59
________________ प्राकृत और मलयालम भाषा नाट्य विधा में प्राकृत-निम्न वर्ग के लोगों को डा. जोसफ ने अपने भाषावैज्ञानिक अध्ययन के प्राकृत बोलनी चाहिए, इस नियम के अनुसार अनेक पश्चात् दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैंरचनाओं में प्राकृत के अश पाए जाते हैं। (i) मलयालम और तमिल में प्राकृत के शब्द सबसे ___ मच पर खेले जाने वाले "कुटियाट्टम" और "कट्ट" अधिक पाए गए हैं। इससे यह तथ्य सामने आता हैमे स्त्री-पात्र प्राकृत बोला करते थे। "The posibility of Karnataka jains preaching कथकलि-संगीतपूर्ण नृत्य है। कोटयत्तु सपूरण exclsively in Kerala may be ruled out." नामक रचनाकार की इस विधा को काव्य कृति (सत्रहवीं (ii) केरल के लेखकों को प्राकृत का व्याकरण संबंधी सदी) में उर्वशी और अप्सराएँ प्राकृत बोलती है। अश्व- विवेचन करते हुए वे कहते है कि-"The presence तितिरुनाळ (अठारहवी शती)को रचना अम्बरीशचरितम of Pali and Ardhamagadhi loan words shows और वयस्कर मूस्स के दुर्योधनवधम् (उन्नीसवी सदी) मे that Buddhists and Jainas had come to Kerala. भो प्राकृत का प्रयोग हुआ है। Perhaps tney might not have entered into संस्कृत नाटकोमे भी महाराष्ट्रो और शौरसेनी प्राकृतो literary activities or what they had written का प्रयोग नोवी सदी से ही देखा गया है। might have been destroyed by their Hindu __ व्याकरण-उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि rurals," जब अजैन लेखको ने भी प्राकृत को अपनाया, 'वररुचि' के प्राकृत व्याकरण' को बहुत अधिक लोकप्रियता तब केरल के जैन लेखको ने प्राकृत मे कुछ भी नही लिखा प्राप्त रही है। शायद इसी कारण के रली परम्परा यह यह बात गले नही उतरती । अवश्य ही जैन प्रन्थ नष्ट हो मानती है कि वररुचि केरल के हो विद्वान थे। किंतु यह गए हाग। किन्तु यह गए होगे। किन्तु यह भी सत्य है कि इस दिशा में शोधमत स्वीकार्य नहीं हो सकता है। इसका अर्थ केवल इतना कार्य नहीं हुआ है । "त्रिवेन्द्रम की पब्लिक लायब्ररी में ही लिया जा सकता है कि केरल मे प्राकृत का सदियो से शायद चालास हजार हस्तालार पठन-पाठन और प्रयोग होता रहा और उनका मख्य श्रेय अन्य स्थानो पर भी अवश्य होगे। वररुचि को है। अनेक स्रोतो से इस अध्ययन के लिए सामग्री एकत्रित वैज्ञानिक साहित्य-इसमे १३वी सदीकी रचना मानी करने में प्रस्तुत लेखक का उद्देश्य यह भी है कि जैन जाने वाली कृति "भाषा कोटिलियम्' छदशास्त्र सम्बन्धी विद्वान केरल मे प्राकृत के प्रयोग से परिचित हों और इस १४वीं शताब्दी का ग्रन्थ है। इसमे दो अध्याय व्याकरण भूभाग में प्राकृत भाषा और साहित्य सम्बन्धी खोज गम्भीरतापूर्वक करें। पर भी है। लेखक ने शब्दो को तीन वर्षों में बांटा है। (a) देसी (b) सस्कृतभव; इस वर्ग में प्राकृत शब्दो को आज भो प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी सम्मिलित कर उन्हें दो वर्गों मे पुनः विभाजित किया कुछ शब्दो के उदाहरण दिए जाते है। 'पाळ्ळ' शब्द है, एक तो वे जो परिवर्तित नही हए (जैसे माणिक्क) जैनो से सम्बन्धित है मुख्य रूप से । केरल के मन्दिर, तथा दूसरे ने जिनमें ध्वन्यात्मक परिवर्तन हुआ है; (c) मस्जिद, गिरजा घर आज भी इसी शब्द से सूचित किए संस्कृत समस् अर्थात् संस्कृत शब्द । जाते है । 'पळ्ळिक्कम' एक प्राकृत शब्द है जो कि केरल आयुर्वेद सम्बन्धी प्रन्थ 'योगामतम्' में भी प्राकत मे 'स्कूल' के लिए प्रयोग में लाया जाता है। प्राचीनकाल शब्दो का प्रयोग है। कुछ प्राकृत शब्दों को नवीन अर्थ मे जैन मन्दिर के साथ-साथ पाठशाला भी केरल मे होती प्रदान किया गया है। हड्डी टूटने पर लगाई जाने वाली थी। खपच्ची को 'तूणी' और अशुद्ध रक्त चूस लेने वाली जोक डा. के. गोद वर्मा ने 'केरल भाषा विज्ञानीयम्' में के लिए 'जाळुविक्कु' इत्यादि मुहूर्त विधि नामक पुस्तक में कुछ ऐसे शब्द दिए हैं जिनकी व्युत्पत्ति प्राकृत से हो संभव प्राकृत प्रयोग है। है। यथा-मकयिरम् (म.), मृगशिरा(स.) मागसिर(प्रा.);

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