Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 60
________________ २२, वर्ष ४५, कि० २ अनेकान्त चेट्टि (म.) श्रेष्ठिन् (सं.) सेट्ठी (प्रा.); कच्चवटम् (म. संस्कृत भी केरल को जैनों की देन पहले इससे कपड़ का व्यापार सूचित होता था। अब कुजिकुट्टन संपूराम ने 'केरलम्' नामक एक काव्य किमी भी प्रकार के व्यापार के लिए प्रयुक्त). कक्षापट में लिखा है। इनका समय उन्नसवी सदी के अत और (सं.) कच्छावट (प्रा-नंगापन छिपाने का वस्त्र)। 'बीसवीं सदी का प्रारभ है। कवि ने दूसरे सर्ग के इलोक केरल मे कोडंगल्लूर के भगवती मन्दिर मे जो 'कुडमी' संख्या ६८ मे यह उल्लेख किया है कि जैन लोगों की (Kudumi) लोग भरणी उत्सव के समय आते हैं, उनकी गतिविधियो के कारण ही केरल के सभी वर्गों के लोग भाषा कोंकणी का भ्रष्ट स्वरूप है। कुछ विद्वानों का मत सस्कृत सीख सके। यह सुविदित हो है कि सस्कृत एक है कि स्वय 'कोकणी' भी 'पैशाची प्राक1' और बिहार वर्ण की विशेष सम्पत्ति रही है। को मागधी का सम्मिश्रण' है। इस घ्य का उल्लेख करत हुए दी गोल्डन टावर' के लेखक श्री इन्दुचूडन ने लिखा नमोऽस्तु से लिपि सीखनाप्रारंभ है-"Trikkulasekharapuram is a place where एक लम्बी अवधि तक केरल में 'बट्टेळ तु' (Vattelot of 'Prakrit' has been used through the luttu) लिपि का प्रयोग होता रहा । तमिलनाडु में तो ages." क्योकि इस स्थान पर (जो कि कोडंगल्लर के यह पन्द्रहवी शताब्दी तक ही उपयोग मे लाई गई किन्तु समीप है) अनेक सस्कृत नाटक लिखे और खेलेगा। केरल में है का उपयोग अठारहवी शताब्दी तक होता इनमे स्त्रियां और निम्न वर्ग के लोग प्राकन बोलते थे। रहा । प्रसिद्ध करलाय बोलते थे। रहा । प्रसिद्ध केरलीय लिपिवेत्ता गोपीनाथ राव का मन इस सम्बन्ध मे श्री इन्दुचडन ने कूलशेखर वर्मा के नाटको है कि इस लिपि का आद्यरूप (प्रोटोटाइप) अनोक के में प्राकृत शब्दो के प्रयोग, केरल के कूडमी जाति के लोगो शिलालेखो की ब्राह्मी लिपि है अर्थात् यह ब्राह्मी से विककी भाषाओ तथा कोकड़ी लोगो की बोलियों को अपने मन सित हुई। जैन मान्यता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का आधार बनाया है। केरल मे प्रायः खेले जाने वाले ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को यह लिपि सिखाई थी। एक सस्कृत नाटक 'आश्चर्यचूडामणि' का भी उन्होने उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थ मे ब्राह्मी लिपि को नमस्कार भी किया किया है। गया है। मणिप्रवाल भाषा शलो उपर्युक्त मत के विपरीत डा. हरप्रसाद शास्त्री का ईसा को नौवी से बारहवी सदी मे मणिप्रवाल नामक मत है कि व?लुत्तु का विकास खरोष्ठी से हआ है। एक अलग ही भाषा-शैली विकसित हुई। इसमे मलयालम दु की बात है कि कुछ लोग खरोष्ठी का शाब्दिक अर्थ या तमिल के साथ अधिकाधिक सस्कृत शब्दो के उपयोग गधे (सर) के ओठ जैमी लिपि करते हैं। ससार में किसी की प्रवृत्ति चल पड़ी। वर्तमान में मलयालम भाषा मे ८५ भी लिपि का इस प्रकार नाम शायद ही मिलेगा। वास्तव प्रतिशत सस्कृत शब्द बताए जाते है। किन्तु मणिप्रवाल मे, खरोष्ठी शब्द 'वृषभोष्ठी' भ्रष्ट या घिसा रूप है। भाषा-शैली के प्रवर्तक भी जन थे। डा. ए. वेळ पिल्ल बृषभ से रिखनोष्ठी और उससे खरोष्ठी बना है, ऐसा ने अपनी पुस्तक Epigraphical Endenees for Tamil भाषाविज्ञान के नियमों से सम्भव है। वृषभ के ओठ से Studies मे मन व्यक्त किया है कि-"we have to प्रचलित की गई अर्थात् प्रथम तीर्थकर वषभदेवारा admit that the Jains first introduced the प्रचलित की गई लिपि वृषभोष्ठी है।। ** Manipravala style, equal admixture of Tamil अब वझेळत्त शब्द की व्युत्पत्ति वह दो प्रकार से की and Sanskrit... ..The Jains gare this up after जाती है-(१) Vatta (गोल, वर्तुलाकार)-Ezhultu some time but the Vaishnavites took it up" लिखावट, लिपि । (२) Vatha (उत्तरी, उत्तर की)+ यह उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त सदियो मे मल गलम तमिल Ezhultu उत्तर भारत की लिपि। दूसरा अर्थ करने पर से पृथक होने के विकास-क्रम मे थी। (शेष पृ० २६ पर)

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