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जैन कवि लक्ष्मीचंद के 'छप्पय'
- डॉ० गंगाराम गर्ग, भरतपुर गेतिकालीन शृगारिक कवियो ने अपने मुक्तक काव्य मील बडो ससार, सुजस ही बेनि बधावै । मे दोहा, कविन, सबैया के अतिरिक्त छप्पय छद का भ' सोल न डो संसार, लधि ते पार करावं । प्रयोग किया है। रोला और उल्लाला से निर्मित छपय मील बडो संसार, मनि मेटन सुबदाई ! छंद का प्रयोग राज-प्रशस्ति के गान मे गापरता से सील बडो संसार, पा । भवि मन वच काई। हुआ। अपभ्रश का 'षटपद' हिन्दी काव्य मे 'छप्पय' के
सील रतन मय होत है, गन मैं धरि अति मंत। नाम मे अवतरित होकर पृथ्वीराज रासो में सर्वाधिक 'लषगी' कहत यह सीख मठि, भवि घार निश्चित । प्रयुक्त हुआ है। डा. कस्तुर न्द नामलीवाल के द्वारा
मोक्ष की ओर अग्रसर करना शील का सबसे बडा मोडल कवि कृत 'बावनी' के प्रकाशित कर दिए जा मे गुण है । अत: मामान्य नर-19ी नहीं, अपितु मुनिवर अपभ्रश का के बाद हिन्दी नीतिकाव्य के प्रवर्तक के भी शील व्रत का विशेष ध्यान रखते हैरूप में छोहल के प्रतिष्ठित होने की सम्भावना बढ़ी है। मोल रतन को धारि, मुनिश्वर ध्यान घर जी। 'छीहल-बावनी' में छप्पय छद ने ही धन, परोपकार, दान, मोल रतन को धारि, मिव पंथ गहै जी। त्याग आदि विभिन्न नैनिक "वधारणाओं को अधिक सील रतन को धारि, नारि नर सुभ गति है। अनुभूतिमय बनाया है। छोहल के बहुत समय बाद सील रतन को धारि, पूज्य संसार जु बहै है। रीतिकाल मे आविर्भूत बनारसीदास, द्यानतराय, देवी. सील रतन व्रत को गहत, नर नारी दिढ़ धारि के। दास, मनोहर दाम, लक्ष्मीचन्द तथा नथमल 'विलाला' तिन को नमत सुर इद सब, 'लषमी' मन हरषाय के।
आदि जा कवियो ने भक्ति और नीति की अभिव्यक्ति के मर्यादा पालन की अनिवार्यता बतलाते हुए, नीतिलिए छप्पय छंद का प्रयोग किया। दिगम्बर जैन मन्दिर कार लक्ष्मीचन्द ने राज के लिए 'प्रजा-वात्सल्यता, प्रजा चाकसू (जयपुर) मे प्राप्त एक गुटके मे लक्ष्मीचन्द के के लिए 'राजाज्ञा-पालन', नारी के लिए 'शोल-व्रत' और कतिपय छप्पय कवित्त तथा २८ दोहे सकलित है। पुरुष के लिए 'शुभ-मार्ग ग्राह' करने का लक्ष्य निर्धारित आचा-नीति के बिधेयात्मक और निषेधात्मक दोनो पक्षो किया है-- पर कतिपय नीति-उक्तिला उत्पादित वी हैं। कवि ने पादन राजा होय, प्रजा को मुख उपजाये। सज्जन पुरुषो में सुगति, उपकार, मत्संग और पुण्य मे पावन परिजा होय, राज मब आनि न पावै। झवि आदि गुण बनलाए हैं -
पावन नारी होय, मील गुन दिढ करि पाल । सज्जन गुन को गेह, कुमति मनि दूरि निवार । पावन नर जो हाय भल मुभ माग चाल । स न गुन को गेह, घरन उपगार जु करि है,
एह च्यारी राज पवित्र है, ते पवित्र महर्ज बरं। सज्जन गुन को गेह, पाप मति कबहू न धरिस । 'लषमी' कहत ऐह, गब भवसागर तिर।
सज्जन है पविहै, मन की। मृमल है। जैन परम्परा के अनमार लक्ष्मीचन्द की आस्था कर्मऐह जानि भवि मन आनि के, 'लक्ष्मी' उर धरि जग लहै। फन में भी है। शुभ कर्मों का फल पुण्य के रूप में कभी ___ 'शील' गुण को लक्ष्मीचन्द ने कुमनि का विनाशक और भी उदिन हो सकता हैयश का पदाता कहकर उसे धारण करने की शिक्षा दी है-- पुन्य उदै तब होय, सुजस पुनि बेल बधाव ।
१. 'गुरु निश्च निरपथ पक्ति के आधार पर लक्ष्माघद क दिगम्बर जैन होन म कोई सन्दह नहीं रह जाता।