Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 42
________________ ४, वर्ष ४५, कि० २ अनेकान्त ही पृथिवीत्व स्व-व्यक्तियों में अनुगत होने से सामान्या- जाता है। अतः कारण की निवृत्ति होने पर कार्य की त्मक होकर भी जलादि से ध्यावृत्ति कराने का कारण निवृत्ति होना स्वाभाविक है । आत्यन्तिक दु.ख की निवृत्ति होने से विशेष कहलाता है। इस प्रकार एक ही वस्तु में होना ही मोक्ष है; क्योंकि सुख-दुःख का अनुपयोग ही मोक्ष सामान्य विशेषात्मक स्वीकार करने वाले वैशेषिक सिद्धान्त कहलाता है। में भी एक वस्तु के उभयात्मक मानने मे विरोध नहीं जैनदर्शन के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और आता। सम्यकचारित्र की समग्रता के बिना मोन की प्राप्ति नहीं प्रथम अध्याय के दसवें सूत्र की व्याख्या मे ज्ञाता हो सकती है। जैसे रसायन के ज्ञानमात्र से रसायनफल और प्रमाण भिन्न-२ हैं, ऐसा मानने वाले वैशेषिक के अर्थात रोगनिवत्ति नहीं हो सकती; क्योंकि इसमे रसायन अज्ञत्व दोष आता है, इसका विवेचन किया है । यदि ज्ञान श्रद्धान और रसायनक्रिया का अभाव है। पूर्ण फल की से आत्मा पृथक है तो आत्मा के घट के समान प्रज्ञत्व का प्राप्ति के लिए रसायन का विश्वास, ज्ञान और उसका प्रसङ्ग आएगा। ज्ञान के योग से ज्ञानी होता है, यह सेवन आवश्यक है। उसी प्रकार दर्शन और चारित्र के कहना भी ठीक नही; क्योकि जो स्वय अज्ञानी है, वह अभाव में ज्ञानमात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं सकती। ज्ञान के सयोग से ज्ञानी नही हो सकता। जैसे जन्म से नैयायिक मानते है कि शब्द आकाश का गुण है, वह अन्धा दीपक का सयोग होने पर भी दृष्टा नहीं बन वायु के अभिधात आदि बाह्य कारणो से उत्पन्न होता है, सकता, इसी प्रकार अज्ञ आत्मा भी ज्ञान के सयोग से इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, गुण है, अन्य द्रव्यो मे नहीं पाया जाता, ज्ञाता नही हो सकता"। निराधार गुण नही रह सकते, अत: शब्द अपने आधारभूत प्रथम अध्याय के बत्तीसवें सूत्र की व्याख्या मे कहा गुणी आकाश का अनुमान करता है, ऐसा कहना युक्तिगया है कि वैशेषिको का मत है कि प्रतिनियत (भिन्न-२) संगत नहीं है क्योंकि पौदगलिक होने से पुद्गल का विकार पृथ्वी आदि जाति विशिष्ट परमाणु से अदृष्टादि हेतु के ही शब्द है, प्राकाश का गुण नहीं है। सन्निधान होने पर एकत्रित होकर अर्थान्तरभूत घटादि पांचवें अध्याय के २५वें सूत्र की व्याख्या में यह सिद्ध कार्यरूप आत्मलाभ होता है, यह कहना युक्तिसगत नही किया गया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु स्कन्ध के ही है; क्योकि वैशेषिक के अनुसार परमाणु नित्य है, अतः भेद हैं तथा स्पर्श, रस, शब्द आदि स्कन्ध की पर्याये हैं। उसमें कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति का अभाव है, इससे नैयायिक के इस सिद्धान्त का खण्डन किया गया है इसी प्रकार ५वें अध्याय के प्रथम सूत्र मे मोक्ष के कि पृथ्वी मे चार गुण, जल में गन्धरहित तीन गुण, अग्नि कारणो के विषय में विभिन्न वादियों के मतो का कथन मे गन्ध और रस रहित दो गुण तथा वायु मे केवल स्पर्श करते हुए न्यायदर्शन की मान्यता की ओर सत किया गुण है। ये सब पृथिव्यादि जातियां भिन्न-२ हैं । गया है कि वे मानते हैं कि ज्ञान से ही मोक्ष होता है"। सल्लेखना के प्रसङ्ग मे कहा गया है कि जो वादी तत्त्वज्ञान से सभी के उत्तर को (मिथ्याज्ञान) की निवृत्ति (नैयायिक) आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं, यदि उनके पुन: हो जाने पर उसके अनन्तर अर्थ है, उसकी भी निवृत्ति हो साधुजन सेवित सल्लेखना करने वाले के लिए आत्मवध जाती है। मिथ्याज्ञान के अनन्तर क्या है ? दोष है। दषण है तो ऐसा कहने वाले के आत्मा को निष्क्रिय मानने क्योंकि दोष मिथ्याज्ञान का कार्य है। दोष कार्य होने से की प्रतिज्ञा खण्डित हो जाती है। निष्क्रियत्व स्वीकार दोष के अनन्तर प्रवृत्ति है, क्योंकि दोष के अभाव में करने पर आत्मवध की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रवृत्ति का अभाव है। प्रवृत्ति के उत्तर जन्म है, प्रवृत्ति दान के प्रसङ्ग में कहा गया है कि बात्मा में नित्यत्व, का कार्य होने से । प्रवृत्ति रूप कारण के अभाव मे जन्म अज्ञत्व और निष्क्रियत्व मानने पर दानविधि नहीं बन रूप कार्य का भी प्रभाव हो जाता है। जन्म के उत्तर सकती। जिनके सिद्धान्त में सत्स्वरूप आत्मा अकारण दुःख है, इसलिए जन्म के अभाव मे दु:ख का भी नाश हो होने से कटस्थनित्य है और ज्ञानादि गुणों से भिन्न होने

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