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प्रकलदेव की मौलिक कृति तत्त्वार्थवातिक
अर्थात् "अकलङ्कदेव की वाणी अनेक भङ्ग और नयों है; स्वतन्त्र पदार्थों में समवाय के नियम का अभाव है। से व्याप्त होने के कारण अतिगहन है। मेरे समान अल्पज्ञ यदि उष्ण गुण एव अग्नि परस्पर भिन्न हैं तो ऐसा कौनप्राणी उनका विस्तार से कथन और वह भी विवेचनात्मक सा प्रतिविशिष्ट नियम है कि उष्ण गुण का समवाय अग्नि कैसे कर सकता है ?"
में ही होता है, शीत गुण मे नही ? उष्णत्व का समवाय तत्त्वार्थवार्तिक मे न्याय वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य, उष्ण गुण में ही होता है-शीत गुण में नही, इस प्रकार मीमांसा तथा चार्वाक मतों की समीक्षा प्राप्त होती है। का प्रतिनियम दृष्टिगोचर नहीं होता। इसमें न्याय, वैशेषिक और बौदर्शन को समीक्षा अनेक इसके अतिरिक्त समवाय के खण्डन में अनेक युक्तियाँ स्थलो पर की गई है। अकलकुदेव का उद्देश्य इन दर्शनों दी गई हैंकी समीक्षा के साथ-साथ इनके प्रहारो से जैन तत्त्वज्ञान १. वृत्त्यन्तर का प्रभाव होने से समवाय का अभाव की रक्षा करना भी रहा है। इसमे वे पर्याप्त सफल भी है। हुए हैं। उन्होने जैन न्याय की ऐसी शैली को जन्म दिया, २. समवाय प्राप्ति है, इमलिए उसमें अन्य प्राप्तिजिसके प्रति बहुमान रखने के कारण परवर्ती जैन ग्रन्थ- मान का अभाव है, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इस प्रकार कार इसे अकलङ्क न्याय के नाम से अभिहित करते हैं। के कथन मे व्यभिचार आता है। उनकी शैली को परवर्ती जैन न्याय ग्रन्थकारो ने, चाहे वे दीपक के समान समवाय स्व और पर इन दोनो का दिगम्बर परम्परा के रहे हो या श्वेताम्बर परम्परा के, सम्बन्ध करा देगा, ऐसा कहना भी उचित नही है, ऐसा खूब अपनाया। इस रूप में आचार्य समन्तभद्र और सिद्ध- मानने पर समवाय में परिणामित्व होने से अनन्यत्व की सेन के बाद जैन न्याय के क्षेत्र में उनका नाम बड़े गौरव सिद्धि होगी।
लिया जाता है। यहाँ हम उनके द्वारा की गई इन सब कारणों से गुणादि को द्रव्य की पर्यायविशेष विभिन्न दर्शनों की समीक्षा पर प्रकाश डालते हैं। मानना युक्तिसगत है।
वैशेषिक समीक्षा-तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के वैशेषिक मानते हैं कि इच्छा और द्वेष से बन्ध होता प्रथम सूत्र की व्याख्या मे सांख्य, वैशेषिक और बौद्धो के है। इच्छा-द्वेषपूर्वक धर्म और अधर्म मे प्रवृत्ति होती है। मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया गया है । वैशेषिक आत्मा धर्म से सुख और अधर्म से दुःख होता है तथा सुख-दु.ख से के बुद्धि, सुख, दु.ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, और संस्कार इच्छा द्वेष होते है । विमोही के इच्छा-द्वेष नही होते; रूप नव विशेष गुणों के अत्यन्त उच्छेदको मोक्ष कहते हैं। क्योंकि तत्त्वज्ञ के मिथ्यादर्शन का अभाव है। मोह ही ऐसा मानते हुए भी कर्मबन्धन के विनाश रूप मोक्ष के अज्ञान है । विमोही षटपदार्थ तत्त्व के ज्ञाता वैरागी यति सामान्य लक्षण में किसी को विवाद नहीं है।
के सुख-दुःख, इच्छा और द्वेष का अभाव है। इच्छा-द्वेष वैशेषिक के मत से द्रव्य, गुण और सामान्य पदार्थ के अभाव से धर्म, अधर्म का भी अभाव हो जाता है। पृथक-पृथक स्वतन्त्र हैं, इसलिए उनके मत मे उष्ण गुण के धर्म-अधर्म के अभाव में नतन शरीर और मन के संयोग योग से अग्नि उष्ण है, ऐसा कहा जा सकता है, स्वयं का प्रभाव हो जाता है। धर्म-अधर्म के अभाव मे नतन अग्नि उष्ण नहीं हो सकती। अयुतसिद्ध लक्षण समवाय शरीर और मन के सयोग का अभाव हो जाता है। शरीर यह इसमें है, इस प्रकार की बुद्धि प्रवृत्ति का कारण होता और मन के संयोग के अभाव में जन्म नहीं होता, वह है, इसलिए गुण-गुणी मे प्रभेद का व्यपदेश होता है और मोक्ष है। इस प्रकार अजान से बन्ध होता है, यह वैशे. इस समवाय सम्बन्ध के कारण ही उष्णत्व के समवाय से षिक भी मानता है। गुण में उष्णता तथा उष्ण गुण के समवाय से अग्नि उष्ण अकलङ्कदेव के अनुसार वस्तु सामान्य विशेषात्मक हो जाती है।
है। इसे वे वैशेषिक मे भी घटित करते हैं। वैशेषिक इसके उत्तर मे अकलदेव ने कहा है कि ऐसा नहीं पृथिवीत्व आदि सामान्य-विशेष स्वीकार करते हैं। एक