Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 48
________________ १०, वर्ष ४५, कि०२ अनेकान्त "यशस्तिलक" के अन्तिम तीन आश्वासों में सोमदेव हो गये । राजन् वे हो हम मुनिकुमार हैं। हमारे आचार्य का धर्माचार्यत्व प्रब ट हुआ है। वे वेद और उपनिषदो के नगर के समीप ही ठारे है। अप्रतिम ज्ञाता थे। पशुबलि को लेकर जो तकं वैदिक यह मनकर राजा बडा आश्चर्यचकित हुआ और उसने ग्रन्थों के उद्धरण देकर प्रस्तुत किये गये है, वे इस बात के दीक्षा देने का आग्रह किया (पचम आश्वास) आगे के समुज्ज्वल निदर्शन हैं। 'यशस्तिलक मे पाठ आप स है। तीन आश्वामो मे जैनधर्म के सिद्धान्तो का विशद्-विवेचन पन्तिम तीन मे धर्म का विवेचन है इसके गद्य पर है जिसके बकना आचार्य प्रदत्त है। सभी ने धर्म ग्रहण कादम्बरी का प्रभूत प्रभाव है। इसी प्रकार कथावस्तु का किया और यथायोग्य स्वर्ग-गद पाया, अन्तम मंगल तथा संघठन भी कादम्बरी से प्रभावित है। मोमदेव का उद्देश्य आत्म-रिचय गाथ ग्रन्थ ममानि । अहिंसा के उत्कृष्टतम रूप की प्रतिष्ठा करना रहा है। जीवन्धर चम्पू-दूमरा महत्वपूर्ण जन चम्पू इसकी कथावस्तु से उन्होने दिखाया कि जब अटे के भी "जीवन्धर चम्प" है। इसके कर्ता महाकवि हरिचन्द्र ने मुर्गे की हिंसा करने में लगातार छह जन्मों तक पशु "धर्मशभ्य दय" महाक' की भी रचना की है। जिसमे योनि मे भटकना पडा तो साक्षात पशु हिंसा करने का पन्द्रहवे तीर्थंकर धन थ का चरित्र चित्रिता। यद्यपि कितना विषाक्त परिणाम होगा इसपी कल्पना भी नाठन श्री नाथूराम प्रमी ने जीवन्धर चम्प का कर्ता महाकवि है, यशस्तिलक की सक्षिप्त - थावस्तु निम्न है- हरित दोन कर किसी अन्य कवि को माना है, यौधेय जनपद में मारिदत्त नाम का राजा था। किन्तु डा. पन्नालाल माहित्याचार्य ने "धर्मशर्माभ्युदय" जिसने एक कौलाचार्य के कहने पर भी जोड़ो के सा: और बीनर चम्प" के नामों तथा शब्दो को समानता मनुष्य के जोड़े की बलि देने का विचार किया। सेवक के आधार पर दोनो का कर्ता एक ही माना है। डा० दो प्रवजित भाई बहिन को पकड लाये, जो अल्पायु थे। बीच भी जीवन्धर चम्पू का कर्ता हरिचन्द्र को ही मानते (प्रथम सं०)। मनिकुमारो को देख राजा का क्रोध शान्त हो गया। हरिचन्द्र का समय, कुल, माता-पिता एव भाई आदि और उसने उनका परिचय पूछा, मुनिकुमारों ने कहा- अज्ञात नहीं है । 'धर्मशर्माभ्युदय" की अन्तिम प्रशस्ति से उज्जयिनी का राजा यशोधर था (द्वितीय आश्वास तथा इनका परिचय मिल जा: है, यद्यपि यह प्रशस्ति सभी तृतीय आश्वास) एक दिन रात में छद्मवेश से उसने देखा हस्तलि खन प्रतियो में नही पाई ज तो है, तथापि कि उसकी रानी महावत के साथ सम्भोग कर लोट आई भाण्डा कर रिसच इस्टीट्यूट पूना से प्राप्त प्रति मे यह है। प्रातः यशोधर को उदास देखकर इसको माता ने उल्लिखित है । यह प्रनि विक्रम सवत् १५३५ मे लिखित कारण पूछा। राजा ने अशुभ स्वप्न का बहाना बनाया, है जिमसे यह ज्ञात होता है, कि यदि यह प्रशस्ति बाद में जिसकी शान्ति के लिए माता ने पशुबलि हा प्रस्ताव जोडो गई है तो, १५३५ वि० स० के पूर्व जोडी गई है। रखा। राजा के न मानने पर अन्त मे आटे के मुर्गे की प्रस्त हार पन्द्र के पिता का नाम आर्द्रदेव आया है बलि देना तय हुआ। इधर रानी ने उम प्रसाद में राजा और धर्माभ्युिदय में भी आद्रदेव का उल्लख हुआ,२९, को माने के लिए विष मिला दिया। जिससे मा बेट प्रशस्ति की भाषा भो महाकवि की भाषा से मिलती. दोनो मर गये । (चतुर्थ आश्वास) जुलती है। अतः प्रशस्ति का हरिचन्द्र कन मानना असमीभावहिंसा के कारण वे दोनों छह जन्मों तक पशू- चीन न होगा। योनि मे भटकते रहे और क्रमशः मोर-कुना, हिरण-सर्प, प्रशस्ति के अनुसार नामक वंश के कायस्थ कुल मे जल जन्तु, बकरा-बकरी, भैंग-भंसा और मुर्गा-मुर्गी हुए। आद्रदेव नामक श्रेष्ठ विद्वान हुए, जिनकी पत्नी का नाम यहीं एक मुनि की वागी मुन वे भाई बहिन हुए तथा रथ्या था, उन दोनो मे हरिचन्द्र नाम का पुत्र हुआ, हरिपूर्वजन्मों की स्मति के कारण बाल्यावस्था में ही प्रवजित चन्द्र के छोटे भाई का नाम लक्ष्मण था। गह का नाम

Loading...

Page Navigation
1 ... 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144