________________
प्राकृत साहित्य में स्याद्वाद :
केवल ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भगवान महावीर की दिव्यध्वनि से सर्व प्रथम स्याद्वाद सिद्धान्त का घवतरण हुआ। इसके बाद ही अहिंसा और अपरिग्रह सिद्धान्तों का आविष्कार हुआ, इसका कारण यह है कि ने अपने केवलज्ञान के द्वारा तीन लोक के त्रिकालवर्ती पदार्थों को एक साथ जान लेने पर भी उन अनन्त पर्यायों वाले अनन्त द्रव्यों का एक साथ कथन न करके क्रमश किया था क्योंकि वाणी की शक्ति हो ऐसी है कि वह विराट् स्वरूप वाली वस्तु का अखण्डरूप से युगपत् कथन नही कर सकती है।
भगवान महावीर के समय मे वस्तु के एक-एक पक्ष का कथन करके आपस में झगड़ रहे तथा अज्ञानता के कारण ही वस्तु के सच्चे स्वरूप को न जानने वालो में से किसी ने वस्तु को नित्य ही माना किसी ने अनित्य हो माना, किसी ने उसे सत् रूप माना, किसी ने असत् रूप । यह तो वैसा ही है जैसा कि जिन जन्मान्धों ने हाथी के जिस अग को स्पर्श करके जाना उसे वैसा ही कहने लगे और दूसरे को मिथ्या कहते हुए झगड़ने लगे' । महावीर ने कहा कि अन धर्मात्मक वस्तु को एक धर्म वाली मानने से वह अवस्तु हो जायेगी। यह कोई क्रिया करने में असमर्थ रहेगी'।
कहा भी है- "एकान्त स्वरूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य नहीं करता और जो कार्य नहीं करता उसे द्रव्य कैसे कहा जा सकता है।" परिणाम रहित द्रव्य न तो उत्पन्न हो सकता है और न नष्ट, इसलिए उसे कार्यकारी नहीं कहा जा सकता है । इसी प्रकार पर्याय मात्र वाला विनाशी एवं प्रत्येक क्षण में बदलने वाला तत्त्व अन्वयो द्रव्य के बिना कोई कार्य नहीं कर सकता। आज यही कारण है कि भगवान महावीर ने कहा कि वस्तु स्वयमेव से अनंत धर्मात्मक है । अनन्त धर्म कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तु
चिंतन
C डॉ० सालचन्द जैन,
एक-अनेक आदि
वस्तु में सत्-असत् नित्य-अनित्य परस्पर विरोधी धर्मों के जोड़े विद्यमान हैं। इस प्रकार वस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों को प्रकाशित करने वाला सिद्धान्त अनेकान्त कहलाता है । माइल्ल धवल ने सम्यक एकान्त के समूह को अनेकान्त कहा है । अनेकान्तात्मक वस्तु का निर्दोष रूप से कथन करने वाली पद्धति स्याद्वाद कहलाती है। जब हम वस्तु के एक धर्म का कथन करते हैं तो ऐसा नहीं होता कि अन्य धर्म उसमे विद्यमान नहीं रहते हैं । कथन करते समय अभीष्ट धर्म मुख्य और अन्य धर्म गौर होते हैं ।
स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रयोग विभिन्न कालों में विभिन्न भाषाओं मे हुआ है। प्रस्तुत मे प्राकृत भाषा मे निबद्ध धार्मिक साहित्य मे देखना है कि स्याद्वाद का अस्तित्व है या नहीं'।
अर्धमागधी साहित्य में स्याद्वाद आधारंग अर्धमागधी साहित्य का प्रथम अंग है। इसमे स्याद्वाद सूचक शब्द उपलब्ध नही है। सूत्र कृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्छ के चौदहवे अध्ययन की गाथा' में आये यासियावाय शब्द का अर्थ डा० ए० एन० उपाध्ये ने स्याद्वाद किया है। पं० मालवणिया ने इसकी विस्तृत मीमांसा की है" ।
भगवती सूत्र ( व्याख्या प्रज्ञप्ति) नामक पांचवें अध्याय में अनेकान्त और स्याद्वाद सूचक अनेक प्रसंग दृष्टिगोचर होते हैं। इसमें भगवान महावीर द्वारा स्वप्न में देखे गये चित्र-विचित्र पंख वाले पुंस्कोकिल को देखने का फल बतलाया गया है कि भगवान विचित्र अर्थात् स्व-पर सिद्धान्त बतलाने वाले द्वादशांग का उपदेश देंगे। मनीथियो ने विचित्र विशेषण का अभिप्राय अनेकान्त माना है" ।
इस अंग में लोक, जीव आदि को निश्य- अनित्य, सान्त अनन्त, शास्वत प्रशास्वत, जीव को शरीर से भिन्न