Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 40
________________ अकलङ्कदेव को मौलिक कृति तत्त्वार्थवातिक 0 डॉ रमेशचन्द जैन, बिजनौर जैनागमो की मलभाषा प्राकृत रही है। संस्कृत में टीकाएं प्राप्त हैं। समकालीन या परवर्ती समस्त टीकाएँ सर्वप्रथम जैन रचना होने का श्रेय गद्धपिच्छाचार्य उमा- इन टोकाग्रन्थों से प्रभावित है। प्रस्तुत लेख का प्रतिपाद्य स्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र को है। तत्त्वार्थसूत्र सूत्र शैली में तत्त्वार्थवातिक ही है। लिखा गया है। सूत्र रूप मे प्रथित इस ग्रन्थ मे जैन तत्त्वार्थवातिक तत्त्वार्थसूत्र पर प्रकलङ्कदेव द्वारा तत्त्वज्ञान का सागर भरा हुआ है । लघु काय सूत्रग्रन्थ होने अतिगहन, प्रखर दार्शनिकता और प्रौढ शैली में लिखी पर भी यह 'गागर मे सागर' भरे जाने की उक्ति को गई मौलिक कृति है। इसे तत्त्वार्थराजवातिक अथवा चरितार्थ करता है। यही कारण है कि जैनधर्म की राजवानिक के नाम से भी जाना जाता है। वातिककार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो परम्पराओ मे यह मान्य अकलदेव ने सर्वार्थसिद्धि का अनुसरण करने के साथ-२ है। इस सूत्र ग्रन्थ का मुख्य नाम तत्त्वार्थ है। इस नाम उसकी अधिकांश पंक्तियो को अपनी वार्तिक बना लिया का उल्लेख टीकाकारो ने किया है, जिसमें आचार्य पूज्य- है। वार्ति के साथ उसकी व्याख्या भी है। कि तत्त्ार्थ पाद, अकलङ्कदेव और विद्यानन्द प्रमुख हैं। जीव, अजीव, सूत्र मे दस अध्याय है, अतः तत्त्वार्थवार्तिक मे दस ही आसव, बध, सवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ हैं। अध्याय हैं, किन्तु उद्योत करके न्यायवार्तिक की तरह इन्ही सात तत्त्वार्थों का तत्त्वार्थमूत्र मे विवेचन है । ग्रन्थ प्रत्येक अध्याय को आह्निको में विभक्त कर दिया गया की महत्ता को देखते हुए इस पर अनेक टीकाएं लिखी है। इससे पहले जैन साहित्य में अध्याय के आह्निकों मे गयीं। दिगम्बर परम्परा मे इस पर सबसे प्राचीन टीका विभाजन करने की पद्धति नहीं पाई जाती। अकलदेव आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि कृत सर्वार्थसिद्धि प्राप्त होती द्वारा तत्त्वार्थवार्तिक में दिए गए वार्तिक प्रायः सरल है। यद्यपि सर्वार्थसिद्धि मे कुछ प्रमाण ऐसे हैं, जिनसे और संक्षिप्त है, किन्तु उनका व्याख्यान जटिल है। इस पता चलता है कि इससे पूर्व भी कुछ टीकाएँ लिखी गई ग्रन्थ में प्रकलङ्कदेव के दार्शनिक, सैद्धान्तिक और वैयाथों, जो आज अनुपलब्ध है। श्वेताम्बर परम्परा मे इस करण तीन रूप उपलब्ध होते है। पर तत्त्वार्थाधिगम भाष्य प्राप्त होता है, जो स्वोपज्ञ कहा दार्शनिक वैशिष्ट्य जाता है। किन्तु इसके स्वोपज्ञ होने में विद्वानो ने सन्देह तत्त्वार्थवार्तिक के अध्ययन से यह बात स्पष्ट पता व्यक्त किया है। सर्वार्थसिद्धि मे तत्त्वार्थसूत्र का जो चलती है कि इसके रचनाकार भट्ट अकलङ्कदेव विभिन्न पाठ निर्धारित किया गया है, दिगम्बर परम्परा के सभी भारतीय दर्शनों के तलस्पर्शी अध्येता थे। उन्होने विभिन्न विद्वान् आचार्यों ने उसका अनुसरण किया है । सर्वार्थसिद्धि दर्शनो के मन्तव्यों की समीक्षा कर अनेकान्तिक पद्धति से को ही दृष्टि मे रखते हुए उस पर भट्ट अकलङ्कदेव ने समाधान करने की परम्परा को विकसित किया । उनका तत्वार्थवातिक और आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोक वाङ्मय गहन है । विद्वान् भी उसका विवेचन करने मे वार्तिक जैमी प्रौढ और गहन तत्त्वज्ञान से ओतप्रोत अनेक कठिनाई का अनुभव करते है। उनके विषय मे वादिराज टीकाएँ लिखी हैं। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि, सूरि ने कहा है-- तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के जोड की "भूयो भेदनयावगाहगहन देवस्य यद्वाङ्मयम् । टीकाएं नही मिलती हैं, यद्यपि सख्या की दृष्टि से अनेक स्थद्विस्तरतो विविध्य वदितुं मन्दः प्रभुदिशः ॥"

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