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संस्कृत जैन- चम्पू और चम्पूकार
भारतीय काव्यशास्त्र मे काव्य के दृष्य और श्रव्य ये दो भेद किए गये है । श्रव्यकाव्य को भी गद्य पद्य और मिश्र इन तीनों भागों में विभाजित किया गया है मिश्र रचना शैली के प्राचीनतम उदाहरण ब्रह्मण प्रन्थों मे पाये जाते हैं । पालि की जातक कथाओं और प्राकृत के "हुवलयमाना" प्रभृति ग्रन्थो मे इसके दर्शन होते है। "पंचतन्त्र" और "हितोपदेश" जैसी रचनाओं में तथा संस्कृत नाटको में दोनों का प्रयोग हुआ है ।
किन्तु यहां गद्य और पद्य का अपना विशिष्ट स्थान रहा है । यहां कथात्मक भाग गद्य में और उसका सार या उपदेश गद्य मे ग्रथित रहा। परन्तु जब गद्य तथा पद्य दोनो मे ही प्रोढता और उत्कृष्टता आने लगी तब नवगुणानुरागी कवियों ने सम्मिलित प्रौढ़ गद्य और पद्म से कसोटी पर अपने आपको परखा, फलतः अनेक कवियो ने गद्य की पद्य की रागमयता से समन्वित गद्य-पद्य मिश्रित काव्यों की रचना कर डाली । कालान्तर में यह काना विद्या चम्पू नाम से अभिहित हुई । महाकवि हरिचन्द्र ने लिखा है कि गद्यावलि और पद्यावाल दोनों मिलकर वैसे ही प्रमोद उत्पन्न करती है, जैसे बाल्य और तारुण्य अवस्था से युक्त कोई कान्ता
अर्थगरिमा व
चानिः पद्यपरम्परा च प्रत्येकहतिप्रमोदम। हर्षप्रकर्षं तनुते मिलित्वा द्राग्वात्प्रतारण्यवतीव कान्ता ||
चम्पू शब्द चुरादिरणीय मत्कचप" धातु से "उ" प्रत्यय लगाकर बना है । “चम्पयति इति चम्पू" किन्तु सतसे शब्द का स्वरूप मात्र उपस्थित होता है। हरिदासाचार्य के अनुसार वत्पुनाति सहृदयान् विस्मयीकृत्य प्रमादगति इति चम्पू: " चम्पू की परिभाषा है । यह व्युत्पत्ति अधिक उपयुक्त जान पडती है । चम्पू काव्य चमत्कार प्रधान हुआ करते हैं । चमत्कार से तात्पर्य उक्ति बनाएव पाब्दी काटछाट से है। चम्पू
[D] डॉ. कपूरचन्द
जैन
काव्यों मे रस एवं औचित्य की अपेक्षा पाण्डित्य प्रदर्शन की ओर कृतिकारों का अधिक ध्यान रहा है। यों तो
योजना विश्व सब जगह दिखाई पड़ता है, किन्तु चमत्कार प्रदर्शन की ओर सर्वाधिक प्रवृत्ति चम्पू काव्यों मे दृष्टिगत होती है ।
काव्य की प्रतिष्ठा मध्यकाल में हुई फलत: इस पर अधिक ध्यान नही दिया गया दण्डो ने कहा हैमिश्राणि नाटकादीनि तेषामन्यत्र विस्तरः । गद्यपद्यमय काचिचरपि विद्यते ॥
इसी प्रकार की परिभाषा विश्वनाथ ने भी प्रस्तुत की है। किसी अज्ञात विद्वान की भी एक परिभाषा प्राप्त होती है, जिसमे उक्ति प्रत्युक्ति तथा विष्कम्मक का न होना तथा अक और उच्छ्वास का होना बताया गया है । "गद्यमयी सांकासोच्छ्वासा कविर्गुम्फिता उक्तिप्रत्युक्तिविष्कम्भक शून्या चम्पूरुदाहृता ।।'
चकाव्य की साफ और सोच्छ्वास विशेष | हेमचन्द्र ने भी स्वीकार की है
"गद्यपद्यमयी साका सोच्छवासा चम्पू ।"
डा० के० भुजबली शास्त्री ने चम्पू शब्द को देश्य माना है। उनका कहना है कि चम्पू काव्य जैनो की अनुपदेन है। उन्होन कर्णाटक के प्रसिद्ध कवि श्री द० ० वेन्द्र के मत का उल्लेख किया है, तदनुमार कन्नड़ और तुलु भाषाओ मे "सपु और चपे" के रूप में जो शब्द उपलब्ध है, उनका अर्थ "गुम्दर" और मिथ" होता है। बहुत कर इन्ही शब्दों से हुआ होगा। बम्बू शब्द निष्पन्न आज भी कन्नड और तुलु भाषा के "केन् चेन्" ये मूल
"कें" के रूप में निष्पन्न होकर सुन्दर और मनोहर अर्थ को प्रदान करते है। गद्य पद्य मिश्रित काव्य विशेष को जनाने सर्वप्रथम सुन्दर एवं मनोहर अर्थ मे 'बंधु' के नाम से पुकारा होगा और बड़ी बाद मे रूढ़ि के